पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. दिलीप ने आते ही जेल में रार ठान ली। उसने कहा, “मैं निष्ठावान् हिन्दू हूँ। मुझे नित्यकर्म, पूजा करने की सुविधा दी जानी चाहिए। मेरा भोजन भी स्वतन्त्र होना चाहिए। मैं जिस-तिसके हाथ का छुआ भोजन न करूँगा। जिन बातों से मेरी धार्मिक भावना को ठेस पहुँचेगी उनके विरुद्ध मैं आमरण अनशन करूँगा।" परन्तु दिलीप की सभी माँगें अव्यवहार्य थीं। जेल के प्रबन्धक उन्हें कैसे मान सकते थे? फिर दिलीप एक 'सी' श्रेणी का कैदी था। कोई गण्यमान्य लीडर भी न था। यद्यपि उसका वह पहला तीखा भाषण इतना ज़बर्दस्त हुआ था कि उसी से धाक बंध गई थी। परिणाम यह हुआ कि जेल में आने के दूसरे दिन उसने भूख-हड़ताल शुरू कर दी, उसकी सहानुभूति में शिशिर ने भी हड़ताल की। साथ ही कुछ कांग्रेसी और कुछ राष्ट्रीय संघी कैदियों ने भी। शीघ्र ही जेल के वातावरण में इस हड़ताल ने एक नई उत्तेजना की लहर उत्पन्न कर दी। कैदी झूम-झूमकर 'भूखहड़ताली ज़िन्दाबाद' के नारे लगाने लगे। एकाध छोटा-मोटा दंगा भी हो गया। जेल के नियमों में कड़ाई बरती गई, पर भूख-हड़तालियों की संख्या बढ़ती ही गई और बढ़ते-बढ़ते अब कुल सौ तरुण प्राणदान देने अकड़कर बैठ गए। ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, जेल अधिकारियों की चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। इसी समय आगा खाँ महल में बन्दी महादेव देसाई की अकस्मात् मृत्यु की खबर हवा में तैरती आ गई। जेल की दीवारों को भी उसने लाँघ लिया। इससे वातावरण बहुत क्षुब्ध हो गया। इन तरुणों को समझाने-बुझाने के लिए नेताओं का प्रयोग भी किया गया, पर परिणाम कुछ न निकला। दिलीप ने कहा, “अपना धार्मिक विश्वास में प्राण रहते नहीं छोडूंगा। मैं संध्या- वन्दन, नित्यकर्म करके अपने हाथ से बना भोजन ही खाऊँगा। नहीं तो मैं प्राण दूंगा।" विवश अधिकारियों को झुकना पड़ा। उसे कुछ सुविधाएँ दे दी गईं। परन्तु इसके बाद ही उन उपद्रवी तरुणों को भिन्न-भिन्न जेलों में बिखेर दिया गया। दिलीप को मुल्तान भेज दिया गया, परन्तु शिशिर को दिल्ली ही में रखा गया। दोनों भाई आँसू बहाते अलग हुए। शिशिर एक आदर्शवादी कांग्रेसी था। अत: उसने जेल में फिर कोई उपद्रव नहीं किया। यद्यपि उसे वहाँ कुछ काम-धाम न करना पड़ता था, परन्तु वह उदास और अनमना रहता था। जेल-जीवन उसे पसन्द न था, वह रह-रहकर राजविद्रोह की बातें सोचता रहता। पढ़ने-लिखने को भी उसे यहाँ कुछ सुविधाएँ मिली थीं इससे उसके ज्ञान की वृद्धि तो यहाँ खूब हुई, पर उसका वज़न बहुत घट गया। उसका स्वास्थ्य भी गिर गया। जब करुणा के साथ डाक्टर और अरुणादेवी उससे मिलने आए तो बातचीत की अपेक्षा चारों आदमियों ने मौन रुदन ही अधिक किया। परन्तु दिलीप एक जलता हुआ आग का अंगारा था। जहाँ जाता था, आग लगा देता था। हल्की कार्रवाई उसे पसन्द न थी। मुल्तान जेल में जाने पर रात के गम्भीर वातावरण में उसने सुना जैसे सुदूर अन्तरिक्ष में कोई देव, गन्धर्व, किन्नर सस्वर वीणा, मृदंग, मुरज बजाकर गान कर रहे हैं। इस कुत्सित जेल के वातावरणा में उसे यह संगीत-ध्वनि विचित्र- सी लगी। कौन यहाँ गाता है? क्या अन्तरिक्ष के देवता हम पीड़ितों को आनन्द-सन्देश देते हैं? वह श्रद्धालु तो था ही-ऐसे ही विचार उसके उत्पन्न हुए। पर उसे अधिक देर इस रहस्य के जानने में न लगी। उसे एकान्त-यातना भोगने के लिए आज्ञा मिल गई और वह हथकड़ियों और डंडे-बेड़ियों से जकड़कर एक अन्धकूप में ला डाल दिया गया।