पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९२

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हुआ।" सूना, वीरान और उजाड़ उसका मन है, तन है और हृदय है-सूना...सूना...सूना। जैसे वह अकेली यात्री अपने देह की गठरी संभाले उस पार जाने के लिए गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही है, जहाँ किसी भी प्रिय के मिलन की आशा नहीं है जो सबसे बड़ा परदेस है। बानू कब से हँसी नहीं है, इसका हिसाब कौन दे सकता है? परन्तु फिर भी सब मिलाकर उसकी सुषमा उस शरदभ्र से दी जा सकती है, जो विशाल नील गगन में चाँदी के महलों की भाँति दूर तक फैला हो और जिसमें एक बूंद भी जल शेष न रह गया हो। जलरहित शरदभ्र की यह रजत-सुषमा, सूखे, उत्तप्त पर्वतों को तृप्त नहीं कर सकती, झुलसे हुए त-पल्लवों को हरा-भरा नहीं कर सकती, पर नेत्रों को आनन्द तो दे ही सकती है। उसमें आनन्द निहित नहीं, पर आनन्द उसमें से प्रवाहित तो होता है। रहमत मियाँ ने आकर बेगम को सलाम किया। सत्तर साल की उम्र, लम्बे, दुबले, छोटी-सी सफेद दाढ़ी। आँखों पर मोटे शीशों का पुराना चश्मा। सिर पर पुरानी मखमली टोपी, बदन पर अचकन, पैरों में रबर का सस्ता जूता। बेगम ने मुस्कराकर कहा, “रहमत मियाँ, घर में सब अच्छे तो हैं? मुद्दत में मिलना "खैर-सल्लाह ही है सब। हुजूर, जब से बड़े नवाब जन्नतनशीन हुए, मैं घर में जा बैठा। किसी की नौकरी नहीं की। हुजूर की ड्योढ़ी पर मैंने खड़े होकर हुकूमत की है, अब किसके सामने हाथ फैलाता! हुसैन तो जवानी ही में दगा दे गया और उसकी माँ उसके गम में मर गई। अकेला ही हूँ हुजूर। खुदा का शुक्र है, इतने दिन बाद हुजूर ने रहमत की। दिल्ली को याद फर्माया, और गुलाम को तलब किया। खुदा गवाह है, आँखें हरी हो गईं। मगर यह क्या देखता हूँ! सुना, अकेली ही तशरीफ लाई हैं। बुआ कह रही थी-नौकर-चाकर कोई साथ नहीं लिया; अब तो हुजूर को दिल्ली कुछ दिन रहना ही होगा?" "रहूँगी, मियाँ रहमत। नौकर-चाकरों की फौज साथ रखने से क्या फायदा? बुआ साथ है। यहाँ उम्मीद थी, रहमत मियाँ हैं ही।" "गुलाम को याद रखा, बड़ी बात की हुजूर।" “मगर हुसैन की सुनकर गमगीन हूँ, यह तो बुढ़ापे में दाग लग गया।" "खुदा की मर्जी है हुजूर, अब आप ही को लो, मैं सुनता रहा हूँ।" “खैर, तो रहमत मियाँ! अब तुम यहीं रहो। बुआ अकेली हैं, घर पर सफाई करानी है-ज़रूरत समझो, एकाध नौकर और रख लो। हाँ, जब से बड़े अब्बा जन्नतनशीन हुए और तुम घर बैठे हो, तभी से तुम्हारा मुशाहरा इस सरकार से मिलेगा। इत्मीनान रखो।" "तो आखिर, हुजूर, पोती किस बाप की हैं, जिनकी सखावत का डंका विलायत तक बजा, उन्हीं नवाबुद्दौला मुश्ताक अहमद बहादुर का लहू इन नसों में है। आप तो ऐसा कहेंगी ही। मगर हुजूर, अब और कै दिन जिऊँगा? फिर मेरा दुनिया में कौन है? क्या करूँगा मुशाहरा लेकर सरकार? अब कदमों में रखिए, जूठन मिलेगा तो पेट भर जाएगा। बस।" बूढ़ा खिदमतगार टपकती हुई आँखों पर दोनों हाथ रखकर दुज़ानू बैठ गया। हुस्नबानू की भी आँखें भीग आईं। उसके मुँह से बोली न निकली।