सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(१०२)


की अनगिनत कहानियां और उनके कुत्सित जीवन की घृणास्पद बातें सब स्वयं सुनी। और जब उनसे कहा कि आप इन आरोपो का क्या उत्तर देते हैं तो उन्होंने निर्लज्जता पूर्वक कहा—इस में हमारा क्या दोष है, यह तो हमारे सम्प्रदाय में होता ही है, आप सम्प्रदाय में संशोधन कीजिए तब ये बुराइयां दूर होंगी।

पुराणों में देवता और ऋषियों के व्यभिचारों को पवित्र और र्निदोष रूप दिया गया है, विष्णु ने वृन्दा के साथ उसके पति का रूप धरके व्यभिचार किया, इन्द्र ने चन्द्रमा की सहायता से गौतम की पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार किया, अनेक देवताओं ने कुमारी अवस्था में कुन्ती से व्यभिचार किया इसी प्रकार विश्वामित्र ने मेनका से, पराशर ने सत्यवती से, यहां तक कि पशुओं तक से व्यभिचार करने के घृणास्पद उदाहरण हमे देखने को मिलते हैं। श्री कृष्ण को एक आदर्श व्यभिचारी के रूपमें हिन्दुओं ने उपस्थित किया है। इन सब बातों से हिन्दू समाज की भावना इस कदर गन्दी होगई है कि कोई कवि, लेखक या नाट्यकार चाहे भी जितनी अश्लील रचना करे, या चेष्टा करे यदि उस में राधा या कृष्ण का नाम आ जाता है तो वह प्रायः क्षमा के काबिल मानी जाती है। और निर्दोष तो वह है ही।

कैसे शर्म की बात है कि मनुष्य अपनी पाप वृत्तियों और कुत्सित भावनाओं को धर्म की आड़ लेकर पूरी करने में अपना बड़ा भारी कौशल समझता है। कभी किसी ने यह नहीं विचार