सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(१४०)

अपने साथ घसीटना चाहते हैं क्योकि हमारे बिना उनका काम नहीं चल सकता।'

इस वक्तव्य में एक अक्षर का भी असत्य या अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है और हम जब तक अपने समाज से उनकी आवश्यक्ताओं को न निकाल देंगे—हम अछूतों के मित्र नहीं बने रह सकते। लोग पुजारियों और पण्डितों पर नाराज हैं इस लिये कि वे उन्हें मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने देते। परन्तु मैं कहता हूं तुम उन्हें अपने रसोई घर में क्यों नही प्रविष्ट होने देते! कौन पुजारी तुम्हें रोकता है। क्या तुम मन्दिरों को रसोई घर से कम पवित्र समझते हो? इस का खुला अर्थ तो यह है कि तुम चीमटे से छू कर धर्म कमाना चाहते हो। दिमागी—गुलामी की भरपूर बू उसमें है।

आज यदि देश के शहरों से पाख़ाने का वर्तमान सिष्टम उठा दिया जाय और भंगियो को शिल्प साहित्य कला के काम सिखाये जायँ और किसी को भी भंगी की आवश्यकता न रहे तो अछूतों का उद्धार हो सकता है, अन्यथा नहीं।

पशुओं के पालन सम्बन्धी अज्ञान हमारा सामाजिक पाप है। बहुत से उपयोगी पशुओ से तो हम कुछ लाभ उठा ही नहीं सकते। भेड़े, बकरियां मुर्ग़े मुर्गी, आदि जानवरों को पालने की तो धर्म की ही आज्ञा नहीं। हम दूध के पशु पालते हैं—कुछ परिन्दों को पालते तथा सवारी और खेती के पशुओं को पालते हैं—परन्तु इतने निकृष्ट ढंग से कि उसे महा मूर्ख़ता कहा जा सकता है।