पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/२४

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दक्षिणा के लिये उसे और उसकी स्त्री पुत्र तक को बिकवा दिया। यह भी जानना चाहता हूं कि यदि मैं स्वीकार कर लूं कि राजा को ऋषि का कर्जा चुकाना ज़रूरी था—तो क्या अपनी स्त्री और पुत्र को बेचकर कर्जा चुकाना उनका धर्म था? क्या मैं इस बात को स्वीकार कर लूं कि भविष्य में जब कभी कोई निर्दयी ज़ालिम कर्जदार मेरी गर्दन पर सवार हो तब मैं अपनी स्त्री को और बच्चे को बाज़ार में बेच दूं—यही मेरा धर्म है? मेरी स्त्री और बच्चा गोया अपना कोई व्यक्तित्व ही नहीं रखते। मैं इस पुस्तक के पाठकों से पूछता हूं कि उनमें कितने ऐसे हैं जो ऐसे मौके पर इस धर्म का पालन करेंगे। अपनी स्त्री और बच्चे को बीच बाजार बेच देंगे।

राज्य राजा की सम्पति है या राष्ट्र की, इसका फैसला तो आज पृथ्वी भर की जातियां मिलकर कर ही रही हैं, शीघ्र ही लोहू की लाल नदियां एशिया और योरुप के मैदानों में बहने वाली हैं, पर वह हमारी चर्चा का विषय नहीं। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि राजा हरिश्चन्द्र का इस प्रकार मंगते को राज्य दान देना, और अपनी स्त्री पुत्र को बाजार में इस प्रकार बेचना—अक्षम्य अपराध है।

इस से भिखारियों के प्रति लोगों के असाधारण अधिकार के भाव उत्पन्न होगये हैं। और भिखारी भी धृष्ट हो गये हैं। मैं समझता हूँ आज हज़ारों वर्ष से भिखारी लोग राजाओं और सर्व साधारण को कर्ण और हरिश्चन्द्र के उदाहरण देकर बढ़ावा दे देकर बेवकूफ़ बनाते और ठगते रहे हैं।