और यात्रियों का जोड़ा बंध जाता था। यूनान के कौरिन्थ नगर में वीनस की मूर्ति की पुजारिने भी वेश्यायें ही थीं। और वे बड़ी श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि से देखी जाती थीं।
ईसा की दूसरी शताब्दि तक यूनान में यह प्रथा थी कि देवी सेवा के लिये उच्च घराने की स्त्रियाँ व्यभिचार करतीं थीं। इस प्रथा को बादशाह कान्टेण्टाइन ने बन्द कर दिया था।
दक्षिण भारत में देव मन्दिरों में 'देवदासियाँ' रहती हैं। बचपन में इनके माता पिता इन्हें मन्दिर में चढ़ा जाते हैं—वहीं ये बड़ी होती हैं। इनका मुख्य काम देवप्रतिमा के सन्मुख नाचना है। ये उस देवता के साथ व्याही होती हैं। इनमें से कुछ सुन्दर स्त्रियाँ पंडे पुजारियों के व्यभिचार की सामग्री होती हैं, शेष देव दर्शन को आये हुए यात्रियों की काम वासना को पूरी करके जीवन निर्वाह करती हैं। ये देव दासियाँ जगन्नाथ से लेकर दक्षिण के सभी मन्दिरों में नाचती हैं। बचपन में ही जब इनके माता पिता इन्हे मन्दिरों में दान कर जाते हैं—तब मन्दिर के तत्वावधान में उस्ताद जी लोग इन्हें नाचने गाने की शिक्षा देते हैं। इससे प्रथम एक रस्म अदा की जाती है कि इनका विवाह देवता की तलवार, फूल, या मूर्ति के साथ कर दिया जाता है। ये मन्दिरों में या मन्दिरों के आस पास रहा करती हैं। उनके गुज़ारे के लिये मन्दिर से एक बंधी रक़म मिल जाया करती है
मद्रास के चिगंलपट ज़िले के कोरियों में (कपड़ा बुनने वालो) यह रीति है कि वह अपनी सबसे वेडी, कहीं कहीं