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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/५५

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नव-निधि


का अपराध लग जायगा। मैंने उससे झालावाड़ जाने के लिए कहा,पर वह गज़ी न हुई। आज तुम उन दोनों की बातें सुनो। अगर वह मन्दार-कुमार के साथ जाने पर राजी हो,तो मैं प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे दूँगा। मुझसे कुढ़ना नहीं देखा नाता। ईश्वर इस सुन्दरी का हृदय मेरी ओर फेर देता तो मेरा जीवन सफल हो जाता। किन्तु जब यह सुख भाग्य में लिखा ही नहीं है,तो क्या बस है। मैंने तुमसे ये बातें कही,इसके लिए मुझे क्षमा करना। तुम्हारे पवित्र हृदय में ऐसे विषयों के लिए स्थान कहाँ?

मीरा ने आकाश की ओर संकोच से देखकर कहा-तो मुझे आशा है? मैं चोर-द्वार खोल दूँ?

राणा -- तुम इस घर की स्वामिनी हो,मुझसे पूछने की ज़रूरत नहीं।

मीरा राणा को प्रणाम कर चली गई।

आधी रात बीत चुकी थी। प्रभा चुपचाप बैठी दीपक की ओर देख रही थी और सोचती थी, इसके घुलने से प्रकाश होता है ; यह बत्ती अगर न जती है तो दूसरों को लाभ पहुँचाती है। मेरे जलने से किसी को क्या लाभ ? मैं म्यों घुलू ? मेरे जीने की क्या ज़रूरत है ?

उसने फिर खिड़की से सिर निकाल कर आकाश की तरफ़ देखा। काले पट पर उज्ज्वल तारे जगमगा रहे थे। प्रभा ने सोचा मेरे अन्धकारमय भाग्य में पेदीप्तिमान तारे कहाँ है? मेरे लिए जीवन के सुख कहाँ है ? क्या रोने के लए पीऊँ ? ऐसे जीने से क्या लाभ ? और जीने में उपहास भी तो है। मेरे नन का हाल कौन जानता है ? संसार मेरी निन्दा करता होगा झालावाड़ की स्त्रियाँ मेरी मृत्यु के शुभ समाचार सुनने की प्रतीक्षा कर रही होंगी। मेरी प्रेय माता लज्जा से आँखें न उठा सकती होगी। लेकिन जिस समय मेरे नरने की ख़बर मिलेगी गर्व से उनका मस्तक ऊँचा हो जायगा। यह बेहयाई का जीना है। ऐसी जीने से मरना कहीं उत्तम है।

प्रभा ने तकिये के नीचे से एक चमकती हुई कटार निकाली। उसके हाथ काँप रहे थे। उसने कटार की तरफ़ आँखें जमाई। हृदय को उसके अभिवादन के लिए मज़बूत किया। हाथ उठाया किन्तु न उठा ; आत्मा दृढ़ न थी।