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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/५६

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मर्यादा की वेदी


आँखें झपक गई। सिर में चक्कर आ गया। कटार हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी।

प्रभा क्रुद्ध होकर सोचने लगी-क्या मैं वास्तव में निर्लज्ज हूँ? मैं राब-पूतानी होकर मरने से डरती हूँ ? मान-मर्यादा खोकर बेहया लोग ही लिया करते हैं। वह कौन-सी श्राकांक्षा है जिसने मेरी आत्मा को इतना निर्बल बना रखा है ? क्या राणा की मीठी-मीठी बातें? राणा मेरे शत्रु हैं। उन्होंने मुझे पशु समझ रखा है जिसे फंसाने के पश्चात् हम पिंजरे में बन्द करके हिलाते हैं। उन्होंने मेरे मन को अपनी वाक्यमधुरता का क्रीडा स्थल समझ लिया है। वे इस तरह घुमा-घुमाकर बातें करते हैं और मेरी तरफ़ से युक्तियाँ निकालकर उनका ऐसा उत्तर देते हैं कि ज़बान ही बन्द हो जाती है। हाय ! निर्दयी ने मेरा जीवन नष्ट कर दिया और मुझे यो खेलाता है ! क्या इसीलिए जीऊँ कि उसके करट भावों का खिलौना बनूँ ?

फिर वह कौन-सी अभिलाषा है ? क्या राजकुमार का प्रेम ? उनकी तो अब कल्पना ही मेरे लिए घोर पाप है। मैं अब उस देवता के योग्य नहीं हूँ, प्रिय-तुम ! बहुत दिन हुए मैंने तुमको हृदय से निकाल दिया। तुम भी मुझे दिल से निकाल डालो। मृत्यु के सिवाय अब कहीं मेरा ठिकाना नहीं है। शंकर ! मेरे निर्बल आत्मा को शक्ति प्रदान करो। मुझे कर्तव्य-पालन का बल दो।

प्रभा से फिर कटार निकाली ! इच्छा दृढ़ थी। हाथ उठा और निकट था कि कटार उसके शोकातुर हृदय में चुभ जाय कि इतने में किसी के पाँव की आहट सुनाई दी। उसने चौंककर सहमी हुई दृष्टि से देखा। मन्दार-कुमार धीरे-धीरे पैर दबाता हुश्रा कमरे में दाखिल हुआ।

प्रभा उसे देखते ही चौंक पड़ी। उसने कटार को छिपा लिया। राजकुमार को देखकर उसे आनन्द की जगह रोमाञ्चकारी भय उत्पन्न हुआ। यदि किसी को ज़रा भी सन्देह हो गया तो इनका प्राण बचना कठिन है। इनको तुरन्त यहाँ से निकल जाना चाहिए। यदि इन्हें बातें करने का अवसर दूं तो विलम्ब होगा और फिर ये अवश्य ही फँस जायँगे। राणा इन्हें कदापि न छोड़ेंगे। ये