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नागरीप्रचारिणी पत्रिका


ध्वनि मेहरौली के अभिलेख में सुनाई देती है। इसमें चंद्रगुप्त ने शत्रुओं के समूह (कांफिडरेसी ) को पगस्त किया था और इस विजय से गुप्त- सम्राटों का बंगाल में इतना आतंक फैल गया था कि अंत तक-प्रकटादित्य के समय तक- बंगाल गुप्त साम्राज्य का अंग बना रहा। (1) इसका उल्लेख प्रभो किया गया है कि चंद्रगुप्त ने वाकाटकों से मैत्री स्थापित करने के लिये अपनी कन्या का पाणिप्रदान किया था। वस्तुतः उत्तर की विकट राजनीति में वे इतने संलग्न थे कि संधि के भतिरिक्त दूसरा चारा ही नहीं रह गया था। फिर उत्तरापथ से दक्षिण- प्रदेश का संयमन करना उस काल में सरल भी नहीं था। अतः चंद्रगुप्त को साम नीति का हो आश्रय लेना पड़ा और इसमें उन्हें काफी सफलता भी प्राप्त हुई। चंद्रगुप्त के जामाता द्वितीय रुद्रसेन प्रभावती गुप्त और द्वितीय प्रवरसेन के राज्य काल में गुप्त-साम्राज्य का दक्षिण में बहुत प्रभाव रहा। द्वितीय प्रवरसेन ने, जो प्रथम पृथिवीषेण की कुंतल-विजय के पश्चात् कुंतलेश कहलाता था, 'सेतुबंध' नामक प्राकृत-काव्य की रचना की थी। टीकाकार ने लिखा है कि उक्त काव्य प्रवरसेन ने, जो द्वितीय चंद्रगुप्त का सभासद था, तैयार किया था और विक्रमादित्य के कहने पर कविकुलगुरु कालिदास ने इसका संशोधन किया था। भोज के गार- प्रकाश' में लिखा है कि विक्रमादित्य ने कालिदास को कुंतल-नरेश की सभा में दृत बनाकर भेजा था। खोटनेपर कालिदास ने कुंतलेश की सभा को विलासिता और सुख-संपन्न जीवन के विषय में अपने विचार एक पद्य १-यस्योद्वत्तयतः प्रतीपमुरसा शन्समेत्यागतान् । वनेष्वाइववर्तिनोऽभिलिखिता खड्गेन कीर्तिभुजे ।। -मेहरौली का अभिलेख, पंक्ति १ । महाकवि कालिदास ने संभवतः इसी युद्ध का वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है- चकम्पे तार्णवाहित्ये तस्मिन्प्राग्ज्योतिषेश्वरः । तद्गजाताना प्राप्त सह कालागुरुद्रुमैः ।। तमीशः कामरूपाणामत्याखण्डहविक्रमम् । भेजे भिन्नकट गैरन्यानुपरुरुरोध यः ।।-रघुवंश, वर्ग ४, श्लोक ८१, ८३ । स्मरण रखना चाहिए कि यहाँ 'प्राग्ज्योतिष' और 'कामरूप' प्रयाग-प्रशस्ति के हो डवाक और कामरूप हैं । यह युद्ध पश्चिमी विजय-यात्रा के बाद हुमा था। (रघुवंश) २-प्रोसीडिंग्स आदि सेवेथ मोरियंटस कान्फरेंस, ४९९ ।