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चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की पश्चिमोत्तरी विजय-यात्रा

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को पश्चिमोत्तरी विजय यात्रा १६ तरफ से अगर आक्रमण होता तो उदयगिरि के आसपास होवा, जो गुजरात और उत्तर-पूर्वी भारत के रास्ते की प्रधान चौकी था और जहाँ से चंद्रगुप्त ने गुजरात पर बाद में आक्रमण किया था। यह बहुत विविध बात होती यदि गुजरात की ओर से प्राक्रमण जलंधर प्रदेश के इधर उधर होता। अतः श्री काशीप्रसाद जायसवाल का विचार ही युक्ति- संगत प्रतीत होता है कि उक्त शकपति कुषाण वंशी राजा थे। हमने अन्यत्र सिद्ध किया है कि कुषाण भारत से परास्त होकर सासानियों की शरण में प्रा गए थे। अतः प्रतीत होता है कि इन दोनों राजाओं की संमिलित शक्ति से भारतवर्ष पर आक्रमण किया गया था और इसी प्रकार सफलता की आशा भी हो सकती थी। इस विजय के पश्चात् चंद्रगुप्त को कुषाण-सासानो संकट को पूर्ण प्रतीति हो गई थी और इस क्षणिक विजय से उनकी आशंका दबी नहीं, वरन् तीतर हो गई। अतः उन्होंने शीघ्र ही भारत को अवस्था ठीक कर इस ओर ध्यान दिया और मध्य एशिया में कुषाण सासानो राज्यों पर भीषण भाक्रमण किया जिससे यह संकट सदा के लिये लुप्त हो जाय । इसी आक्रमण का वर्णन मेहरौली के अभिलेख में है। इस विजय-यात्रा का विस्तृत एवं चित्रमय वर्णन महाकवि कालि. दास के 'रघुवंश' के चतुर्थ सर्ग में सुरक्षित है, जिसकी भोर विद्वानों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। रघु की दिग्विजय में कालिदास ने सम्राट समुद्रगुप्त की विजय-यात्रा एवं चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के पश्चिमोत्तरी प्राक्रमण का महान् चित्र प्रस्तुत किया है। विद्वानों ने प्रयाग-प्रशस्ति के अध्ययन के फलस्वरूप निश्चित किया है कि समुद्रगुप्त के आक्रमण मध्य- भारत-राण, कौशांबी-तथा पूर्वी दक्षिणी तट-कोलेर भीख-पर ही हुए थे। 'प्रार्यमंजुश्रीमूलकल्प' में कश्मीर-विजय-यात्रा एवं पश्चिमी प्राक- मण का उल्लेख है, परंतु वे केवल प्रदर्शन मात्र थे, जिनसे गणराज्यों, प्रत्यंतनृपतियों और शकों के हृदय में आतंक बैठ गया था और वे प्रात्म- समर्पण करने के लिये विवश हुए थे। यही कारण है कि प्रयाग-प्रशस्ति में इनका विशेष उल्लेख नहीं है । अतः कालिदास ने बंगाल, मध्य भारत और दक्षिण-पूर्वी युद्धों के जो वर्णन किए हैं वे वास्तव में समुद्रगुप्त के युद्ध 1-को. ई. ई०, सख्या ६, कृत्स्नपृथिवी जयार्थे न राहवेह सहागतं भक्त्या गुहामेतामकारयत् , पक्ति ५ । २-गुप्त साम्राज्य और भारत के जनतत्रात्मक गणराज्य । -विश्ववाणी, सन् १९४६, पृष्ठ २०३ ।