पृष्ठ:नागरी प्रचारिणी पत्रिका.djvu/२५

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नागरीप्रचारिणी पत्रिका

१६० नागरीप्रचारिणी पत्रिका हैं । परंतु उन्होंने पश्चिमी और मध्य एशिया के आक्रमण का जो सूक्ष्म और सुंदर चित्रण किया है वह समुद्रगुप्त को विजय-यात्राओं से कोई सबंध नहीं रखता, वरन् वह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के उस महान् दिग्विजय का परिचायक है जो मेहरौली के अभिलेख में वर्णित है एवं जो गुप्त- साम्राज्य के स्थायित्व के लिये अनिवार्य तथा अवश्यंभावी था। कवि ने जिस सूक्ष्मतापूर्वक इस वर्णन को पद्यबद्ध किया है उससे निस्संदिग्ध रूप से ज्ञात होता है कि कवि को इसका वैयक्तिक परिचय था। हमने ऊपर देखा है कि कालिदास कवि मात्र ही नहीं थे परन् गुप्त राजनीति में भी विशिष्ट योग देते थे। अतः यह स्वाभाविक है कि इस विजय यात्रा में वे स्वयं भी संमिलित हुए है। हम इस विजय-यात्रा का कालिदासकृत वर्णन देखें। अपनी विशाल वाहिनी के साथ सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य पश्चि- मोत्तर की ओर अग्रसर हुए और हिमालय के दसै को पार कर उस मार्ग से बल्ब की ओर बढ़े जिसका सिकंदर ने उपयोग किया था। बल्ख प्रदेश में ही, शायद बेग्राम के समीप, कुषाणों और सासानियों से गुप्तों का युद्ध दुधा। कालिदास ने कुषाणों की चर्चा नहीं की है, क्योंकि उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रह गई थी। प्रमुख शक्ति पारसियों को थो और इन्हीं से युद्ध करने के लिये चंदरत ने प्रस्थान किया था।' पारसियों की अश्व-सेना तो प्रसिद्ध हो है। उन्होंने भारतीयों के विरोध के लिये बहुत बड़ी अश्व-सेना तैयार की। युद्ध इतना तुमुल हुआ कि पारसियों के दढ़ियल मुंडों से पृथियो इस प्रकार आच्छादित हो गई जिस प्रकार मधुमक्खियों से शहद का छत्ता । इस भीषण हत्याकांड और चंडीनृत्य के पश्चात् पारसी संधि करने के लिये विवश हुए और स्थानीय रिवाज के अनुसार उन्होंने नंगे सिर अपनी पगड़ियाँ घसीटते हुए गुप्त-सम्राट की शरण ग्रहण की। इस प्रदेश के सिमूर बहुत प्रसिद्ध हैं और फलों- १-पारसीकस्ततो जेतु प्रतस्थे स्थलवर्मना। इन्द्रियाख्यानिध रिपू स्तत्वज्ञानेन संयमी ।। ||-रघुवंश-सर्ग । यह स्थल मार्ग देहली. रोहतक, कैथल, हिसार, लाहौर, पेशावरवाला प्रसिद्ध मार्ग था। २- सग्रामस्तुमुखस्तस्य पाश्चात्यैरश्वसाधनः। शाउंगजितविज्ञ य प्रतियोधे रजस्यभत् ।।२।। भालापवर्जितैस्तेषा शिराभि श्मश्रलमहीम् । तस्तार सरघाव्याप्तै स क्षौदपटलैरिव ।।६३॥-वहां। ३-अपनीतशिरस्त्राणाः शेषास्त शरणं ययुः । पणीपातप्रतीकार परम्भो हि महात्मनाम् ॥६॥-वही।