पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/१७

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नाट्यसम्भव।


प्रियतमा के विरहरूपी वज्र से हमारे मनोमुकुर को चकना चूर कर दिया! आह! यह किम जन्न के पापों का फल भोग रहे हैं? हे दुर्दैव! जो तुझे यही सूझा था तो फिर हमें अखिललोकवांछित वर्ग के सिंहासन पर क्यों बैठाया? हा!

प्रतिहारी। महाराज की जय होय! स्वामी यही माधवी कुंज है। आप यहां पर विराजैं।

इन्द्र। (घूम कर और प्रतिहारी को देखकर) अरे पिंगाक्ष! तू निकुंज के द्वार पर बैठकर पहरा दे कि जिसमें कोई यहां आकर विघ्न न करने पावै। तबतक हम इसी सूनी लता से अपना जी बहलावैं।

पिंगाक्ष। जो आज्ञा (गया)

इन्द्र। (घूम कर) हा! प्यारी के बिना आज यह माधवी कुंज सांपिनसी इसे लेती है। (पन्ने की शिला पर बैठकर) और यह पत्रे की शिला आज कांटे की भांति शरीर में चुभ रही है। (ठहर कर) हाय! हमने जो यक्ष को*[१] शाप देकर उसकी प्रणयिनी को असह्य विरह की यातना दी थी, उसीकी हाय के भभूके से हमारा हृदय आज भुना जाता है। (लम्बी सांस लेकर) अरे! यह मूर्ख अविवेकी पामरों का


  1. * महाकवि कालिदास ने इसी यक्ष की पौराणिक कया लेकर मेघन काव्य बनाया है।