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नाट्यसम्भव।


प्रलाप मात्र है कि "संसार के समस्त भोग विलामादि सुखों का एकमात्र स्वर्गही आकर है और उस स्वर्ग के नायक परमप्रतापशाली देवेन्द्र की सौभाग्य लक्ष्मी से तीनो लोक प्रकाशित और गौरवान्वित हैं" इत्यादि। तो अब वही लोग आंख पसार कर देखें कि उसी बड़भागी देवेश की आज कैसी दुर्दशा हो रही है? (उठकर इधर उधर घूमता है) हा! आंखों के आगे अंधेरा हुआ जाता है, निकुंज के पक्षियों का चहचहाना कानों में वज्र की भांति गूंजता है, हाथ पांच सन्न और अङ्ग प्रत्यङ्ग शिथिल हुए जाते हैं, हृदय सूना होगया और प्राण ओठों पर नाच रहे हैं। (चारों ओर देखकर) आह! जिस स्वर्ग में सदा शोभादेवी क्रीड़ा किया करती थीं, आज वहीं कैसी घटा कीसी उदासी छागई है। जहां सदैव आनन्द कीसी सरिता बहा करती थी, वहां पर आज भयंकर ज्वालमालासी लपट फैल गई है। जहां शोक दुःख सन्ताप का नाम तक न था, आज वहीं इन लोगों ने अपना अड्डासा जमा रक्खा है (ठहर कर) और यह बात सोचने से तो कलेजा फटा जाता है कि हत्यारे असुरों ने न जाने प्राणप्रिया की कैसी दुर्दशा की होगी! हा! हमारे इस जीने पर कोटि कोटि धिक्कार है!!!