पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/१९

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नाट्यसम्भव।

दोहा।
छिन छिन बीतै मोहि जुग, तुव विन चतुर सुजान।
विरहानल छाती दहै, प्रान लगे पिलखान॥
सोरठा।
कैसे रहिहैं प्रान, प्रिया तिहारे दरम बिन।
सूनो लगत जहान, इक तो बिन मनभावती॥
(विरहनाट्य करता हुआ गाता है)
राग मारू।

प्यारी तो बिन विकल प्रान मम तलफत हैं इत।
सूनो लागै मनिमंदिर अब चितवों जित तित॥
छाई आंसुन बूंद सदा इन नैनन माहीं।
किये कोटि उपचार धरै हिय धीरज नाहीं॥
बिकल प्रान अकुलान लगे या तन में दुखसों।
हाय भैंट ह्वै है बहोरि मोकों कब सुखसों।
या नन्दनवन माहिं दुखी मानस सबही को॥
पै जानत नहिं भेद कोऊ लहि मेरे जी को।
हरै कौन जग माहिं अहो! गम्भीर पीर को॥
बिना तिहारे चैन परै कैसे सरीर को॥
अब नहिं ढाढ़स बंधे हिये में प्यारी तो बिन।
कैसे कटि हैं हाय दुसह दुखदाई दुरदिन॥
अब तो कोऊ भांति हमें प्यारि मरिवो है।
जैसे वने प्रेम-परिपाटी अनुसरिवो है॥