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पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/२०

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१३
नाट्यसम्भव।

विरह-बज्र की मार सहौं कैसे हिय ऊपर।
कौन अहै, दुख सहै अहो! या भांतिन भूपर!!?
गई सबै सोभा हेराय नन्दनवन केरी।
छाई वनि विकराल कालसी घटा घनेरी॥
मानत नाहिं मनाये कैसेहूं जिय मेरो।
आंखिन आगे रह्यो घेरि चहुं ओर अंधेरो॥
कोऊ दीखत नाहिं ताहि सम प्यारी दस दिक।
अबही लों जीवत हों, तो बिन मोकों धिक धिक॥
करौं प्रतिज्ञा बज्रधारि कर अब हम दृढ़तर।
जारि असुरकुल, मारि मूढ़, संहारि दनुजवर॥
करौं बेगि उद्धार, याहि हाथन सों प्यारी।
जौं चितवैं करि नेह विलोचन सों त्रिपुरारी॥

(शिला पर बैठकर आंख मूंदे हुए "करों बेगि उद्वार, इत्यादि फिर पढ़ता है)
(नेपथ्य में)
राग सम्माच।
जय जय अखिल भुवन की बानी।
कवि की रसना माहिं जासुको मन्दिर वेद बखानी॥
अतुल रूप, गुन अमित, विस्व में जाकी छटासमानी।
जेहि लहि पुनि कछु करैं आस नहिं सुर, नर, मुनि विज्ञानी॥