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नाट्यसम्भव।

(इन्द्र चौंक कर इधर उधर देखता है और सरस्वती का गुन गाते हुए भरतमुनि आते हैं)

इन्द्र। (उठकर और आसन देकर) पुनिवर को प्रणाम है।

भरत। (बैठकर) हे स्वर्गलोक के शानन करनेवाले पाक शासन! जस रमानेवाले भवानीपति भूतनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करैं। ऐं सुरेश! तुम्हारा प्रसन्नमुख आज इतना मलिन क्यों होरहा है? बैठो तो सही।

इन्द्र। (बैठकर) मुनिवर! हमारा अपराध क्षमा कीजिए, क्योंकि इस समय हम ऐची घोर चिन्ता में डूबे हुए हैं। कि अच्छी तरह आपका आदर सत्कार नहीं कर सकते। हा! अपनी दुःख से भरी कहानी हम कहांतक सुनावें, आपसे क्या कुछ छिपा है?

भरत। हे इन्द्र! तुम्हारे ऐसे धीर वीर पुरुष को ऐसा अधीर होना कदापि उचित नहीं है।

(धुन विरहनी)

इन्द्र। कहा कहौं बनि परे न भाखे यह दुखरी कहानी।
भरत। पै धीरज उर धरै, भए दुःख जे नर हैं विज्ञानी॥
इन्द्र। विरहानल यों हियो जरावै समय पाय मननानो।
भरत। कासों कहा बसाय सबै जग विधि के हाय बिकाने॥
इन्द्र। नैन नीर बरसावैं निस दिन वपु बरसात बनाए।
भरत। ह्वैहै वहुरि बसन्त, गाई है कोकिल कल मन भाए॥