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नाट्यसम्भव।

सूखि इन्द्र पीरो भयो, विरहागिन तन जार॥

दमनक। वाह। यह तो बड़ी रंगीली और नई कहानी सुनाई। पर इससे गुरुजी को क्या काम!

रैवतक। गुरूजी ने उसके दुःख दूर करने की प्रतिज्ञा की है कि इसका उपाय हम करैंगे।

दमनक। (मन में) यह तो वही वात हुई कि "बाहरवाले खाजायं औ घर के गावे गीत"। अपने चेला का दुःख दूर करतेही नहीं, इन्द्र का खेद मिटाने चले। (प्रगट) तो अव इन्द्रानी कहां हैं?

रैवतक। गंधमादन पर्वत पर राक्षसों के शिविर में।

दमनक। (मुहं चिढ़ा कर) क्योजी! इन्द्र के सामने से उनकी प्रानप्यारी स्त्री को असुर लोग लूट लेगए और उन से कुछ भी न बन पड़ा? ऐं! यह तो बड़ी लज्जा की बात है। तो फिर अब अपनी रानी को इन्द्र अपनाबैंगे या सीता की शांति यह भी स्त्री को त्याग कर श्री रामचन्द्र की लीक पकड़ैंगे?

रैवतक। क्योंरे मूर्ख! छोटे मुह बड़ी बात! राम राम! सती शिरोमणि शची देवी के लिये तू ऐसे कठोर वचन कहता है? छिः। ऋषियों के आश्रम में रहकर अभी तक तू निरा बैल ही रहा!

दमनक। (उछल कर) और तू गधा बन गया। उल्लू न जानै कहां-का। चुपरह, कलका छोकड़ा औ हम्ही