पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/५३

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नाट्यसम्भव।

चारिगुनवारी कविकंठ बास चारी मातु-
वानी मुघासानी सदा ज्ञान देनवारी है।

सोरठा।

को करिसकै निहाल, विपति परे सुत के सदा।
विना मातु पितुहाल, जगजीवन जननी जनक॥

(हाथ जोड़े हुए प्रणाम करके) हे माता! अब तुम्हारी मरन छोड़कर कहां जायं! इस समय तुम्हारे बिना कान हमारी लाली रक्खेगा? मां! अपने अपनाए हुए चालक की जल्दी सुधि लो। हे जननी! अब शीघ्र कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे हम इन्द्र की विरहव्यथा को दूर कर उसके चित्त को प्रसन्न कर सकैं। देवी! जो हमारी प्रतिज्ञा होगी तो फिर तुम्हारा माहात्म्य कहां रहेगा? (चरण पर पुष्पांजलि प्रदान)

सरस्वती। (मन्द मुसकान पूर्वक) हे मङ्गीतसुधाबुंद वरसानेवाले भरत! आज हम तेरी स्तुति से बहुत प्रमन्न हुई। अब तूं अपने मन में किसी बात का मात्र न कर। हमारे रहतें त्रैलोक्य में कौन सा पदार्थ है जो तुझे नहीं मिल सकता और किसकी इतनी मामध्य है जो तेरी प्रतिज्ञा के अन करने या कराने का साहस करेगा। आज अवश्य तुझे तेरी अचलभक्ति का प्रसाद मिलेगा।

भरत। हे जननी! माता को छोड़कर और कौन ऐसा