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नाट्यसम्भव।

संसार में है जो इतनी दया पुत्र पर करै।

सरस्वती। देख पुत्र! इस अलौकिक वस्तु का मुख्य अधिकारी केवल तू ही संसार में है। इसी से आज यह वस्तु सुपात्र में अर्पित होती है, ले!

(भरत के हाथ में पुस्तक देती हैं)

भरत। (हाथ में पुस्तक ले और साष्टांग प्रणाम करके) हे माता! तुम्हारी दया का पारावार नहीं। तुम धन्य है।। आज हम निस्सन्देह कृतार्थ हुए। आजही हमारा जीवन, तप, पांडित्य और शरीर का धारण करना सफल हुआ।

(आंखों में आनन्दाश्रु छाजाते हैं)

सरस्वती। हे बेटा! इस अपूर्व विद्या को त्रैलोक्य में प्रचलित करके तू ही इसका आद्याचार्य होगा। देख। साहित्य के प्रधान दो अंगों में से प्रथम भाग को, जिसमें कि भव्यकाव्य के भेद का वर्णन है, हम तुझे देही चुकी थीं, आज यह उसका दूसरा भाग भी, जिसमें दृश्यकाव्य का निरूपण किया गया है, तुझे दिया गया। इसका वड़ा नाहात्म्य है और शास्त्रों में भी इसकी थोड़ी महिमा नहीं लिखी है।

भरत। हे माता! तुम धन्य है और तुम्हारी दया भी धन्य है। अहा! आज हमारे वान और दक्षिण अङ्ग की भांति साहित्य के श्री दोनों अङ्ग पूरे होगये।