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नाट्यसम्भव।

॥श्रीः॥

 

नाट्यसम्भव

 

-:का:-

 

अङ्कावतार*[१]
(स्यान सुधर्ना सभा के सामने रङ्गशाला)(१)
(रङ्गशाला का परदा उठता है और गन्धमादन पर्वत के एक सप्रशस्त शङ्ग पर दैत्यराज बलि टहलता हुआ दिखलाई देता है, जिसे देख देवता बड़े चकित होते हैं)

बलि। (आपही आप) क्या कारण है कि हमारा दूत ममुधि अभी तक इस बात की साध लेकर न आया कि इन्द्राणी के हरे जाने से देवताओं-विशेष कर इन्द्र की अब क्या दशा है और स्वर्ग का विजय कर लेना अव कितना सहज है! (ठहर कर टहलता हुआ) अहा! वह दिन भी हमारे लिए कैसे आनन्द का था कि जिस दिन हम गुरुबर शुक्राचार्य की संमति

  1. * इस 'भवावतार' के पहिले जो छः अङ्क छपे हैं, उन्हें इस (अशावतार) की 'पूर्वपीठिका' और अन्त के सातवे अटू को 'उत्तरपीठिका' समझनी चाहिये।
    (९) सुधर्मासमा भलीभांति सजी हो, इन्द्रादिक देवता, जोकि 'कल्पवृक्षबाटिका में थे अपने अपने स्थानों पर सुशोभित हों और सामने वाली रङ्गशाला' में भरताचार्य इस 'मटावतार' का अभिनय दिखावें ।