पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/१०५

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८६ हमारा पर्दा हैं वे ही अधिकार स्त्रियों को मिलने चाहिये, चाहे वे जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों। समानता के नाते उचित है कि बालिकाओं का लालन उसी प्रकार किया जाय जिस प्रकार बालकों का किया जाता है; और दोनों का शिक्षा में समान स्थान दिया जाय । आज स्त्रियों की शिक्षा की आवश्यकता को समाज ने मान लिया है तथापि उनकी शिक्षा के प्रकार के सम्बन्ध में अनेक मतभेद हैं । वर्तमान शिक्षा स्त्रियोचित नहीं है, ऐसा बहुतों का मत है । भारतीय शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन हो, यह मैं भी चाहती हूँ। पर साथ ही यह भी. मानती हूँ कि बालिकाओं को भी उसी प्रकार शिक्षा मिलनी चाहिये जिस प्रकार बालकों को मिलती है। शिक्षा मनुष्य जीवन के विकास के लिये आवश्यक है तो वह स्त्री-पुरुष दोनों के लिये है। शिक्षा का दुरुपयोग यदि कर सकते हैं तो स्त्री-पुरुष दोनों ही। अतः हमें उपयोगिता के साथ ही अधिकारों को भी देखना होगा और स्त्रीशिक्षा का विकास करना होगा। मैं स्त्रियों के लिये उच्च से उच्च शिक्षा की पक्षपातिनी हूँ। मेरा विश्वास है कि स्त्रीशिक्षा में ही समाज का सच्चा कल्याण निहित है । पुरुषों की अपेक्षा स्त्रिया शिक्षा के लिये अधिक योग्य हैं, इस प्रकार कह दूँ तो अनुचित न होगा । हम ज़रा बालक-बालिकाओं की ओर देखें । लड़किया लड़कों से अधिक चतुर और चपल होती हैं। लड़किया लड़कों की अपेक्षा चलना और बोलना जल्दी सीखती हैं । लड़कों के मुकाबिले बीमार भी कम पड़ती हैं । लिखने-पढ़ने में भी आगे बढ़ जाती हैं । वे शारीरिक विकास में भी पुरुषों से आगे हैं। पुरुषों के शरीर विकास के लिये यदि २०-२५ वर्ष चाहिये तो स्त्रियों के शरीर विकास के लिये १६-१८ वर्ष ही चाहिये । प्रकृति ने स्त्रियों को पुरुषों से किसी प्रकार पिछड़ा नहीं बनाया है । हमें इस बात को समझना चाहिये और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों को उनका उचित स्थान देना चाहिये । परदे का प्रश्न बहुत कुछ उपर्युक्त प्रश्न से सम्बद्ध है । परदा-निवारण का प्रश्न हिन्दू समाज के सुधार क्षेत्र में आज प्रथम स्थान पाए हुए है । मारवाड़ी समाज में तो सुधार और परदा-निवारण ये दोनों शब्द एक साथ हो गये हैं। किसी भी समाज का सुधार और प्रगति महिला समाज के सुधार बिना नहीं हो सकती और महिला समाज की प्रगति जब तक परदा निवारण नहीं होता तब तक नहीं हो सकती अतः महिलाओं का परदा निवारण मारवाड़ी समाज के सुधार का श्रीगणेश है । इसके बिना सामाजिक सुधार की कल्पना करना बिना नींव के इमारत बनाने का प्रयत्न करना है।