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पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/१२५

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हमारी विवाह-प्रथा जब मानव में बुद्धि का प्रकाश हुआ, सोचने की शक्ति आई, तो स्वाभाविक ही था कि वह संसार की विविधता पर चिन्तन कर किसी निर्णय पर पहुँचने का प्रयत्न करता । हमारा सामाजिक विधान इसी मन्थन का फल है । मुण्ड बनाकर रहने की प्रवृत्ति तो जंगली पशु-पक्षियों में भी कम अधिक परिमाण में पाई जाती है । इन झुण्डों में भी. हम एक हिरन का एक ही हिरनी के साथ, एक कबूतर का एक ही कतरी के साथ. गाढ़ स्नेह देखते हैं । तब बुद्धिमान मनुष्य कितने दिन बेलगाम और उच्छृखल जिन्दगी बसर कर सकता था। अतः बुद्धि विकाश के साथ ही साथ मानव ने अपनी इच्छानुकूल सहचरी या सहचर लेकर जीवन-यापन करना विशेष सुखकर एवं शान्तिदायी समझा होगा। साथ ही नवकल्पित होने से विवाह बन्धन ढीले और उदार भी रहे होंगे। पीछे स्वार्थ और सभ्यता के विकाश के साथ जटिलता को वृद्धि हो जाने के कारण वे एक- पक्षीय एवं संकुचित होने लगे । कृषि के विस्तार के साथ स्त्रियों को तो पुरुष ने अधीन कर ही लिया था । तभी एकपक्षीय बन्धन मान्य हो सके। आश्चर्य की बात है कि प्राचीन काल की स्वतन्त्र स्त्रिया दूसरे पक्ष को आज़ाद छोड़कर स्वयं मकड़ी के समान जाल में कैसे फंस गई ? फिर भी देखा जाय तो उस समय की स्त्रियों के वैवाहिक बन्धन आज के समान कठोर नहीं थे। जिन सावित्री; सीता, द्रौपदी और दमयन्ती के सतीत्व की दुहाई हम दिया करते हैं उनके साथ सत्यवान, राम युधिष्ठर और नल भी एक पत्नी- व्रत के उज्वल उदाहरण हैं। उत्कट पतिप्रेम में सती होना या अत्यन्त पत्नीप्रेम में बड़े-बड़े राज्यों को ठुकराने के उदाहरण आज भी मिलते हैं । जीवन की अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं में वैवाहिक समस्या भी अपना निजी महत्व रखती है। वैवाहिक समस्या का समाज की मुख्य समस्या कहा जाय तो भी