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नारी समस्या

प्रायः समाचार-पत्रों तथा सभा-समितियों में नारी-समस्या के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये जाते हैं उनसे किसी भी सुलझे विचारों के व्यक्ति का आश्चर्य में पड़ जाना स्वाभाविक है। सुधारक बहिनें उत्साह की उमंग में प्रायः ऐसी बातें कह जाती हैं जो एक ओर तो पराकाष्ठा पर पहुँची दिखती हैं; किन्तु दूसरी ओर उनमें व्यापक दृष्टि का स्पष्ट अभाव रहता है। जो लोग अभी तक स्त्रियों की सामाजिक स्वतन्त्रता को शंका की दृष्टि से देखते हैं, वे उपर्युक्त सुधारकों का दूने वेग से विरोध करते हैं। वस्तुतः दोनों दृष्टिकोण ऐकान्तिक हैं; व्यापकता का अभाव लिये हुए हैं।

स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। पुरुष के बिना स्त्री का और स्त्री के बिना पुरुष का सामाजिक ही नहीं मानसिक; और आधुनिक विचार दृष्टि से तो आध्यात्मिक जीवन भी अधूरा ही रहता है। भारतीय धर्म-शास्त्रों में जो स्त्री को अर्धोगी माना गया है, वह फैशन के रूप में नहीं; उसके भीतर मनोविज्ञान का तथ्य निहित है। इसलिये इन दोनों के सामाजिक अधिकारों में जब तक सामंजस्य न होगा, सामाजिक विधानों के भीतर दोनों के सम्मान की रक्षा की व्यवस्था न रहेगी, तब तक दोनों में किसी का भी जीवन सुखमय नहीं बन सकता। यह स्पष्ट सत्य है। फिर भी जिस प्रकार कुछ वर्ष पहिले "स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है" कहना अपराध माना जाता था, सरकार के विरुद्ध ज़बान हिलाना ऊखल में सिर देना था, कारागार को आमन्त्रण देना था; (यद्यपि अब भी उस परिस्थिति में विशेष अन्तर नहीं हुआ है;) उसी प्रकार स्त्रियों के ज़रा भी ज़बान खोलने पर, घर से बाहर झाँक लेने पर, या ऐसा काई कार्य करने पर जिसमें पुरुषों की सरकार की स्वीकृति पहिले से न ले ली गई हो, स्त्रियों का मुँह बन्द कर देने के लिये दंड-विधान की सैकड़ों पुरानी और नई धारायें प्रस्तुत थीं जो आज थोड़ी बहुत ढीली अवश्य पड़ गई हैं,