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पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/४३

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२७ परिवार में नारी का स्थान वाली और चतुर निकली तो हेड मुनीम की जगह मिल जाती है। परन्तु उसकी तनख्वाह वही रहती है जो घर वाले अपनी इच्छा से गहनों आदि के रूप में उसे दे देते हैं । इसके अतिरिक्त उसका कोई भी अधिकार नहीं । पुत्र हो गया तो वह पिता के धन का उत्तराधिकारी समझा जाता है । माता का रोटी-कपड़े के सिवा घर में कुछ भी हक नहीं। इस देश में स्त्रियों को तलाक देने का और पुनर्विवाह करने का न सामाजिक अधिकार है और न कानून ही । पुरुष पत्नी की चाहे उपेक्षा करे, चाहे उसे त्याग दे, पर पत्नी कुछ नहीं कर सकती । पुरुष पत्नी के जीते जी चाहे जितनी शादिया कर ले, समाज में निन्द्य नहीं माना जाता क्योंकि हमारे देश के राजा ही ऐसा करते आये हैं तो फिर प्रजा करे तो दोष क्या ? विधवा होने पर भी स्त्री को अपने पति की सम्पत्ति में हिस्सा नहीं मिलता । उसकी सारी सम्पत्ति जेठ देवरों में बँट जाती है, पुत्र हुआ तो उसके हिस्से में पड़ जाती है । स्त्री को हमेशा रोटी कपड़ों के लिये दासी होकर रहना पड़ता है । कैसी आश्चर्य की बात है । उसीसे पालित बच्चे अधिकारी माने जायँ और वह अनधिकारिणी ! पारिवारिक जीवन को चलाने, खर्च सँभालने में स्त्रियों का साधारण मुनीम से ज्यादा अधिकार नहीं । परिवार की आय यदि ठीक हुई तो स्त्रियों की सलाह लेने की काई आवश्यकता नहीं समझी जाती लेकिन आय कम हुई तो उनकी कुछ सलाह कहीं- कहीं चल जाती है—वह भी केवल उसके व्यय के संकोच को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कराने के लिये ही । व्यय वह उतना ही कर सकती है जितना उसके मालिक अर्थात् पति का हुक्म हो । दैनिक जीवन में स्त्रियों को अपने भाव व्यक्त करने की स्वतन्त्रता नहीं है । सास के सामने तो वे मुँह भी नहीं खोल सकतीं । किसी स्त्री की इच्छा हो कि वह किसी संस्था में जाकर या घर पर अध्यापक बुलाकर, शिक्षण ले तो उसका विरोध होता है । स्त्रियों में वह शक्ति भी नहीं कि वे घर वालों के बिना पूछे अपने मन की कोई बात भी मुँह से निकाल सकें । वे तो दूसरों की बुद्धि से सोचती हैं, दूसरों की आखों देखती हैं और दूसरों के मुँह बोलती हैं । यदि किसी स्त्री की इच्छा होती है कि परदा न करूँ तो वह अपनी इच्छा प्रकट करने तथा उसे कार्य रूप में लाने के लिये तो सर्वथा असमर्थ रहती है।