। महिलायें और नौकरी भारत में स्त्रियों के साथ नौकरी शब्द का प्रयोग देखकर कुछ लोगों को आश्चर्य होगा किन्तु महिला-संसार की वर्तमान वस्तु-स्थिति हमें मजबूर करती है कि इस विषय पर हम कुछ विचार करें । स्त्रियों को नौकरी करना चाहिये या नहीं, यह एक गम्भीर प्रश्न है । विशेषतः भारतीय वातावरण में पले हुए लोगों के लिये तो इस प्रश्न का उत्तर देना और भी कठिन है । जो लोग इसके विपक्ष में हैं, उनका कहना है कि स्त्रियों के नौकरी करने से सामाजिक नियमों में गड़बड़ी होने लगेगी। स्त्री और पुरुष इस समाज- रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं । इन दोनों को अपने कर्तव्यों का समान रूप से पालन करना चाहिये । स्त्रियों और पुरुषों के कार्य-क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं । स्त्रियों पर घर के सब कामों की जिम्मेवारी रहती है । पुरुष पर कमाने का उत्तरदायित्व रहता है । जब स्त्रिया भी नौकरी करने लग जायेंगी तो घर का काम कौन सँभालेगा । कितने ही नौकर-चाकर रखे जायँ किन्तु वे न माता के समान सन्तान का पालन-पोषण कर सकते हैं, और न उत्तम गृहिणी के समान घर का प्रबन्ध कर सकते है। कुछ लोग यों भी कहते हैं कि स्त्रिया अपने पति और घर वालों के अपमान से दुखी होकर यदि नौकरी करना चाहती हैं, तो क्या वे जिसके यहाँ नौकर रहेंगी उसके द्वारा उनका अपमान नहीं होगा ? दूसरों के द्वारा अपमान सहने से तो घर वालों से अपमान सहना अच्छा है । स्त्रिया यदि नौकरी करने लगी तो पति-पत्नी में वैसा प्रेम भी नहीं रह सकता और न दोनों का जीवन आनन्दमय हो सकता है । इस पक्ष वालों की ऐसी बहुतसी दलीलें हैं जिनसे मालूम होता है कि स्त्रियों को नौकरी के झमेले में नहीं पड़ना चाहिये । लेकिन इस प्रश्न का एक दृसग़ भी पहलू है। स्त्रिया क्या स्वत: नौकरी करना चाहती हैं ? क्या पुरुषों ने ही उन्हें ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं किया है ? जिन स्त्रियों का पिता या पति की सम्पत्ति पर कुछ भी
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