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पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/८०

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माता का उत्तरदायित्व माताएँ समझती हैं कि बच्चों को खिलाना पिलाना, पहिनाना, सुलाना, बीमार होने पर चिकित्सा करवाना, बस हो गया हमारा कर्तव्य पूरा । अधिक हुआ और पिता ने बच्चे को स्कूल नहीं भेजा तो माता किसी स्कूल में बच्चे को भेज देती है । बस अब काई काम नहीं बचा । किन्तु जन्म लेना, खाना, पीना, सोना, बीमार होना, अच्छा होना यह सब प्राकृतिक नियम हैं । इन प्राकृतिक नियमों में बहिनें अपनी अज्ञानता के कारण बाधा डालती हैं । उनकी आवश्यकता का न समझकर तनिक रोने पर असमय में ही दूध पिलाना, निद्रा में विघ्न डालना, स्वच्छ न रखना, अण्ट शण्ट दवाएँ देना ये बातें प्राकृतिक नियमों के बाहर हैं। पालन-पोपण के अतिरिक्त माता-पिता की जवाबदारी है, बच्चे को सुसंस्कृत, सुशिक्षित बनाने की। शिक्षा की दृष्टि से कुछ माता पिता इतने सावधान रहते हैं कि चार ही वर्ष की उम्र में बच्चे को स्कूल भेज देते हैं । स्कूल पढ़ाई का क्या ढंग है, बच्चों के बैठने उठने के लिये क्या व्यवस्था है, इतने छोटे बच्चे को किस प्रकार से, किस पद्धति से शिक्षा देनी चाहिये इसका विचार करने, इस विषय का साहित्य पढ़ने के लिये माता पिता के पास रुचि और समझ नहीं रहती । बच्चे को छः या सात वर्ष की अवस्था से कम में स्कूल बिलकुल न भेजना चाहिये । किन्तु अत्यधिक ध्यान देने की बात तो संगति; और वातावरण है । प्रथम अवस्था में बड़ी से बड़ी संगति, वातावरण, घर तथा मा की गोद है। माता पिता के विचारों का और बाहर के वातावरण का जो प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, वह स्कूलों में अनेक परीक्षायें पास कर लेने पर भी पड़ना कठिन है । एक छोटासा उदाहरण देखिये । जो लोग कभी पैर नहीं दबवाते उनके पैर भी कभी नहीं दुखते किन्तु तजुर्बा करने के लिये रात को सोते वक्त तीन चार दिन पैर दबवाइये, पाँचवें दिन बिना पैर दबवाये नींद आना मुश्किल हो जायगा । मनुष्य में