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पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/९९

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नारी-समाज में जागृति जरठत्व के लिये मधुऋतु और अन्त में अबोध, असहाय, अकिञ्चन मानवता को अपने अञ्चल में समेट कर उस पर वत्सलता के मोती बरसाती हुई उसे धूल से उठाकर वायु में उड़ने की शक्ति तथा जल थल और आकाश का बाँधने का बल देने वाली मूर्तिमती ममता माता है । नारी के अस्तित्व से ही विश्व के प्राणों में संचरण शक्ति है । प्रत्येक नारी को अपना. यह महान रूप प्रतिक्षण स्मृत रखना चाहिये । यही उसका वास्तविक रूप है । वह चाहे बन का सदन बना दे और चाहे तो सदन का बन । दोनों ही उसके लिये सुकर हैं। सच पूछिये तो साहित्य शास्त्र के नवों रस नारी प्रकृति के सहज अँग हैं । नारी में आप इन्हें एकत्र समवेत देख सकते हैं । वह मधुरा है और भैरवी भी, देवी है और राक्षसी भी, विग्रहवती कोमलता है और कर्कशता भी, नवनीत है और वज्र भी । और उसके दोनों रूप सुन्दर हैं, दोनों ग्राह्य । फिर भी आज वह दासी है, बन्दिनी है, उपभोग्य है, विलासपात्री है । कैसा दयनीय चित्र है ? वह नर की छाया नारी वह चकित भीत हरिनीमी निज चरगा-चाप से शकित स्थापित गृह के कोने में वह दीपशिखासी कम्पित और इसका कारण है कि योनिमात्र रह गयी मानवी निज अात्मा कर अर्पित ऐसी नारी कर ही क्या सकती है ? दासी से रानी बनने के प्रयत्न में उसने एड़ी से चोटी तक का पसीना एक किया। निज का सँवारा, सजाया, एक एक चेष्टा स्वामी का अनुकूल बनाने के लिये की, पर परिणाम हुआ यह कि दासता का पाश दिन-दिन जकड़ता गया । आज की नारी तो पुरुष से पृथक अपनी सत्ता भी नहीं सोच ,पाती । सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों से उसका अस्तित्व मिट चुका है । आज उसे कायाकल्प करना है । साहित्य, धर्मशास्त्र सब उसे उपभोग्य-जंगम सम्पत्ति समझते आये हैं । संस्कृत साहित्य में नारी का पद बहुत कुछ सुरक्षित रहा । वह स्वेच्छा से पुरुष की दासी थी क्योंकि पुरुष भी उसका सहचर था। पीछे के संस्कृत साहित्य में केवल पदसेविता के, जिसके मूल में वासना ही मुख्य थी, स्थान-स्थान पर दर्शन होते हैं। संस्कृत के इन्हीं परवर्ती कवियों का प्रभाव मुख्यतः पड़ने के कारण हिन्दी काव्य-साहित्य में नारी के जिस घृणित वासनामय रूप के दर्शन होते हैं उसे आज