पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०२ निबंध-रत्नावली तिरस्कार तब भी कर सकता हूँ।" बस इस गुलाम ने दुनिया के बादशाहों के बल की हद दिखला दी। बस इतने ही जोर और इतनी ही शेखी पर ये झूठे राजा शरीर का दु:ख देते और मार-पीटकर अनजान लोगों को डराते हैं । भोले लोग उनस हरते रहते हैं । चूँकि सब लोग शरीर को अपने जीवन का केंद्र समझने इसलिये जहाँ किसी ने उनके शरीर पर जरा जओर से हाथ लगाया वहीं वे मारे डर के अधमरे हो जाते हैं: केवल शरीर-रक्षा के निमित्त ये लोग इन राजाओं की ऊपरी मन से पुजा करते हैं । जैसे ये राजा वैसा उनका सत्कार ! जिनका बल शरीर को जरा सी रस्सी से लटकाकर मार देने भर ही का है, भला उनका और उन बलवान और सच्चे राजाओं का क्या मुकाबला जिनका सिंहासन लोगों के हृदय-कमल की पंखड़ियों पर है ? सच्चे राजा अपने प्रेम के जोर से लोगों के दिलों को सदा के लिये बाँध देते हैं । दिलों पर हुकूमत करने. वाली फौज, तोप, बंदूक आदि के बिना ही वे शाहंशाह-जमाना होते हैं । मंसूर ने अपनी मौज में आकर कहा-"मैं खुदा हूँ।" दुनिया के बादशाह ने कहा-"यह काफिर है।" मगर मंसूर ने अपने फलाम को बंद न किया । पत्थर मार मारकर दुनिया ने उसके शरीर की बुरी दशा की; परन्तु उस मर्द के हर बोल से ये ही शब्द निकले-'अनलहक" "अहं ब्रह्मास्मि" "मैं ही ब्रह्म हैं" | सूली पर चढ़ना मंसूर के लिये सिर्फ खेल था। बादशाह ने समझा कि मंसूर मारा गया ।