पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०१

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मजदूरी और प्रेम १६१ के आनंद-मंगल का एक साधारण सा और महा तुच्छ उपाय है । धन की पूजा करना नास्तिकता है; ईश्वर को भूल जाना है; अपने भाई-बहनों तथा मानसिक सुख और कल्याण के देनेवालों को मारकर अपने सुख के लिये शारीरिक राज्य की इच्छा करना है; जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को स्वयं ही कुल्हाड़ो से काटना है । अपने प्रिय जनों से रहित राज्य किस काम का ? प्यारी मनुष्य-जाति का सुख हो जगत् के मंगल का मूल साधन है । बिना उसके सुख के अन्य सारे उपाय निष्फल हैं। धन की पूजा से ऐश्वर्य, तेज, बल और पराक्रम नहीं प्राप्त होने का । चैतन्य आत्मा की पूजा से ही ये पदार्थ प्राप्त होते हैं। चैतन्य- पूजा ही से मनुष्य का कल्याण हो सकता है । समाज का पालन करनेवाली को धारा जब मनुष्य के प्रेममय हृदय, निष्कपट मन और मित्रतापूर्ण नेत्रों से निकलकर बहती है तब वही जगत् में सुख के खेतों को हरा-भरा और प्रफुल्जित करती है और वही उनमें फल भी लगाती है। आओ, यदि हो सके तो, टोकरी उठाकर कुदाली हाथ में लें, मिट्टी खोदें और अपने हाथ से उसके प्याले बनावें । फिर एक एक प्याला घर घर में, कुटिया कुटिया में रख आवें और सब लोग उसी में मजदूरी का प्रेमामृत पान करें। है रीत आशकों की तन मन निसार करना । रोना सितम उठाना और उनको प्यार करना । ११