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कछुवा-धर्म

(आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। मांख्यों ने काठ-कड़ी गिन गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पककर उपाय खोजा। किसी ने कहा कि बहस, बकझक, वाक्छल, बोली की चूक पकड़ने और कच्ची दलीलों की सीवम उधेड़न में ही परम पुरुषार्थ है। यही शगल सही। किसी न किसी तरह कोई न कोई उपाय मिलता गया । कछुओं ने सोचा चोर का क्या मारें, चोर की माँ को ही न मारे न रहे बाँस न बजे बॉंमगे। यह जीवन ही तो सारे दु:खों की जड़ है। लगों प्रार्थनाएँ होन-

“मा दहि राम ! जननीजठरे निवासम्”, “ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशन्ति जननीगर्भेऽभकत्वं जनाः” और यह उस दश में जहाँ कि सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों का यह कहते कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुने, सौ बरस बढ़ बढ़कर बोले, सौ बरस अदीन होकर रहें-सौ बरस ही क्यों, सौ बरस से भी अधिक । भला जिस देश में बरस में दो ही महीनं घूम फिर सकते हो और समुद्र की मछलियाँ मारकर नमक लगाकर सुखाकर रखना पड़े कि दस महीने के शीन और अँधियारे में क्या खायेंगे, वहाँ जीवन से इतनी ग्लानि हो तो समझ में आ सकती है पर जहाँ राम के राज में 'अकृष्टपच्या पृथिवी पुटकं पुटके मधु'-बिना खेती के फसलें पक जाये और पत्ते पत्ते में शहद मिले वहाँ इतना वैराग्य क्यों ?