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निबंध-रत्नावली

नागरीप्रचारिणी सभा वैज्ञानिक परिभाषा का कोष बनाती है। उसी की नाक के नीचे बाबू लक्ष्मीचंद वैज्ञानिक पुस्तकों में नई परिभाषा काम में लाते हैं। पिछवाड़े में प्रयाग की विज्ञान- परिषद् और ही शब्द गढ़ती है। मुसलमान आए तो कौन सी बाबू श्यामसंदर की कमिटी बैठी थी कि सुलतान को सुरत्राण कहो और मुगल को मुंगल ? तो भी कश्मीरी कवि या गुजराती कवि या राजपूतान के पंडित सब सुरत्राण कहने लग गए । एकता तब थी कि अब ?

बौद्ध हमारे यहीं से निकले थे। उस समय के वे पार्यसमाजी ही थे। उन्होंने भी हमारे भंडार को भरा। हम तो देवानां प्रिय मूर्ख को कहा करते थे। उन्होंने पुण्यश्लोक धर्माशोक के साथ यह उपाधि लगाकर इसे पवित्र कर दिया। हम निर्वाण के माने दिए का बिना हवा के बुझना ही जानते थे, उन्होंने मोक्ष का अर्थ कर दिया। अवदान का अर्थ परम सात्त्विक दान भी उन्हीं ने दिया।

बकौल शैक्सपीयर के जो मेरा धन छीनता है वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने यह मर्मस्थल पर मार की है कि कुछ कहा नहीं जाता, हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। औरों ने तो गाँठ का कुछ न दिया, इन्होंने अच्छे अच्छे शब्द छीन लिए। इसी से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिं कुठाउँ' । अच्छे-अच्छे पद तो यों सफाई से ले लिए हैं कि इस पुरानी जमी हुई दुकान का दिवाला निकल गया !! लेने के देने पड़ गए !!!