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मारेसि मोहिं कुठाउँ

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, 'हिंदू' कहते हैं। जैसे परशुराम के भय से क्षत्रियकुमार माता के लहँगों में छिपाए जाते थे वैसे विदेशी शब्द हिंदू की शरण लेनी पड़ती है और आर्यसमाज पुकार पुकारकर जले पर नमक छिड़कता है कि हैं ! क्या करते हो? हिंदू माने काला, चोर, काफिर !! अरे भाई ! कहीं बसने भी दोगे ? हमारी मंडलियाँ भले 'सभा' कहलावें 'समाज' नहीं कहला सकतीं। न आर्य रहे न समाज रहा तो क्या अनार्य कहें और समाज कहें ( समाज पशुओं का टोला होता है)? हमारी सभाओं के पति या उपपति (गुस्ताखी माफ, उपसभापति से मुराद है ) हो जावें किंतु प्रधान या उपप्रधान नहीं कहा सकते। हमारा धर्म वैदिक धर्म नहीं कहलावेगा, उसका नाम रह गया है-सनातन धर्म। हम हवन नहीं कर सकते, होम करते हैं। हमारे संस्कारों को विधि संस्कारविधि नहीं रही, वह पद्धति (पैर पोटना) रह गई। उनके समाज मदिर होते हैं, हमारे सभाभवन होते हैं। और तो क्या 'नमस्ते' का वैदिक फिकरा हाथ से गया-चाहे जय रामजी कह लो, चाहे जय श्रीकृष्ण, नमस्ते मत कह बैठना। ओंकार बड़ा मांगलिक शब्द है। कहते हैं कि यह पहले पहल ब्रह्मा का कंठ फाड़कर निकला था। प्रत्येक मंगल-कार्य के प्रारंभ में हिंदू श्रीगणे- शाय नम: कहते हैं। अभी इस बात का श्रीगणेश हुआ है-इस महावरे का अर्थ है कि अभी प्रारंभ हुआ है। एक वैश्य यजमान के यहाँ मृत्यु हो आने पर पंडितजी गरुडपुरावजी