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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२५४

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निबंध-रत्नावनी

कथा कहने गर । प्रारंभ किया श्रीगणेशाय नमः । सेठनी चिल्ला उठे-बाह महाराज ! हमारे यहाँ तो यह बीत रहा है और आप कहते हैं कि श्रीगणेशाय नमः । माफ करो। तब से चाल चल गई है कि गरुडपुराण की कथा में श्रीगणेशाय नमः नहीं कहते, श्रीकृक्षाय नमः कहते हैं उसी तरह अब सनातनी हिंद न बोल सकते हैं, न लिख सकते हैं, संध्या या यज्ञ करने पर जोर नहीं देते। श्रीमद्भागवत की कथा या ब्राह्मणभोजन पर संतोष करते हैं।

और तो और, आर्यसमाज ने तो हमें झूठ बोलने पर लाचार किया। यों हम लिलाही मूठ न बोलते, पर क्या करें। इश्कबाजी और लड़ाई में सब कुछ जायज है। हिरण्यगर्भ के मान सोने को कौंधनी पहने हुए कृष्णचंद्र करना पड़ता है, 'चत्वारि शृंगावाल मंत्र का अर्थ मुरली करना पड़ता है,' 'अष्ट- वर्षोऽष्टों वा' में अष्ट च अष्ट च एकशेष करना पड़ता है। शतपथ ब्राह्मण के महावीर नामक कपालों को मूर्तियाँ बनाना पड़ता है। नाम तो रह गया हिंदू । तुम चिढ़ाते हो कि इसके माने होते है काला. चोर या काफिर । अब क्या करें ? कभी तो इसकी व्युत्पत्ति करते हैं कि हि+इंदु । कभी मेरुतंत्र का सहारा लेते हैं कि 'हीनं च दूषयत्येव हिंदुरित्युच्यते प्रिये ।' यह उमा-महेश्वर-संवाद है, कभी सुभाषित के श्लोक "हिंदव विष्यमाविशन्" को पुराना कहते हैं और यह उड़ा जाते हैं कि ससी के पहले 'यवनैरवनिः क्रांता' भी कहा है, कभी महाराज..