यह रघु है, जिसके उठने-बैठते हजारों ब्राह्मण पुण्याह शब्द से दिशाओं को गुंजा देते थे। यह अज है जिसने प्रियावियांग से राज्य छोड़ दिया था और जिसके रजोगुणोद्भव दोष नित्य अत्र- pथ स्नान से शांत होते थे। अब भरत का माथा ठनका। इस ढंग से चौथी प्रतिमा उसी के पिता की होनी चाहिए। निश्चव के लिये वह फिर तीनों प्रतिमाओं के नाम पूछता है। वही उत्तर मिलता है। देवकुलिक से कहता है कि क्या जीते हुओं की भी प्रतिमा बनाई जाती है? वह उत्तर देता है कि नहीं, केवल मरे हुए राजाओं की। भरत सत्य को जानकर अपने हृदय की वेदना छिपाने के लिये देवकुलिक से बिदा होकर बाहर जाने लगता है, किंतु वह रोककर पूछता है कि जिसने स्त्री-शुल्क के लिये प्राण और राज्य छोड़ दिए उस दशरथ की प्रतिमा का हाल तू क्यों नहीं पूछता ? भरत का मूर्छा आ जाती है। दवलिक उसका परिचय पाकर सारी कथा कहता है। भरत फिर मूच्छत होकर गिर पड़ता है। इतने में रानियाँ आ जाती हैं। हटो बचो की आवाज होती है। सुमंत्र किसी अनजाने बटोही को वहाँ पड़ा समझकर रानियों को भीतर जाने से रोकता है। देवकुलिक कहता
थे, अर्थात सारी प्रजा की प्रतिनिधिलब्ध सहानुभूति से यज्ञ हुआ था। राजसूय प्रकरण में उन प्रजा के प्रधान रत्नों का उल्लेख है, जिनके यहाँ राजा जाकर यज्ञ कता और तुहफे देता। यह राजसूय का पूर्वाग है।