है कि बेखट के चली आओ, यह तो भरत है। प्रतिमाएं इतनी अच्छी बनी हुई थीं कि भरत की आवाज सुनकर सुमंत्र के मुँह से निकल जाता है कि मानों महाराज (दशरथ) ही प्रतिमा में से बोल रहे हैं। और उसे मृच्छित पड़ा हुआ देखकर सुमंत्र वयःस्थ पाथिव ( जवानी के दिनों का दशरथ ) समझता है। आगे भरत, सुमंत्र और विधवा रानियों की बातचीत होती है। बड़ा ही अद्भुत तथा करुण दृश्य है।
इससे पता चलता है कि भाम के समय में देवमदिरों (देव- कुलों ) के अतिरिक्त राजाओं के देवकुल भी होते थे जहाँ मरे हुए राजाओं की जीवित-सहश प्रतिमाएं रखी जाती थीं। एक वंश या राजवु ल का एक ही देवकुल होता था जहाँ राजाओं की मूर्तियाँ पीढ़ीवार रखी होती थीं। ये देवकुल नगर के बाहर वृक्षों से घिरे हुए होते थे। देवमंदिरो से विपरीत इनमें झडे, श्रायुध, ध्वज या काई बाहरी चिह्न न होता था, न दरवाजे पर रुकावट या पहरा होता था। आनेवाले बिना प्रणाम किए इन प्रतिमाओं की ओर।
भास के समय में पर्दा कुछ था, आजकल के राजपूतों का सा नहीं। प्रतिमानाटक में जब सीता राम के साथ वन को चलती हैं तब लक्ष्मण तो रीति के अनुसार हटाओ, हटाओ की आवाज लगाता है; किंतु राम उसे रोककर सीता को घुघट अलग करने की आज्ञा देता है और पुरवासियों को सुनाता है-
सर्वे हि पश्यन्तु कलत्रमेतद् वाष्पाकुलादैर्वदनैर्भवन्तः । निर्दोषदृश्या हि भवन्ति नायर्यो. यज्ञ विवाहे व्यसने वने च ॥