घोड़े के सहमरण का भी उल्लेख है। पास में देवी कुंड होने से यह स्थान भी देवीकुंड कहलाता है | यहाँ के पुजारी शाकद्वीपो ब्राह्मण ( सेवग, भोजक या मग) हैं। ऐसे ही धर्माचार्यों, ठाकुरों, धनियों आदि के भी समाधि-स्मारक स्थान होते हैं।
इन देउलियों और छतरियों तथा भास-वर्णित इक्ष्वाकुओं के या शैशुनाक ओर कुशनों के देवकुलों में यह भेद है कि देवली या छतरी सती या राजा के दाह-स्थल पर बनती तथा एक हो की स्मारक होती है; देवकुल श्मशान में नहीं होते थे। उनमें एक ही भवन में एक वंश के कई राजाओं की मूर्तियाँ वंशक्रम के अनुसार रखी जाती थीं। छतरियों के शिल्प और निवेश में मुसलमानी रोजों और मकबरों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है, देवकुल की चाल प्राचीन थी।
पंजाब के काँगड़ा जिले के पहाड़ी त में, जो राजमागों से विदूर तथा मुसलमानी विजेताओं तथा प्रभावों से तटस्थ रहा, अब तक देवकुल की रोति चली आती है। वहाँ प्रत्येक ग्राम के पास जलाशय पर मरे हुओं की मूर्तियाँ रखी जाती हैं। मेरे प्राम गुलेर के देवकुल का वर्णन सुन लीजिए । गुलेर बहुत ही पुराना
ग्राम है। कटोचवंश की बड़ी शाखा की राजधानी वह
- पंडित हरप्रसाद शास्त्री ने भ्रमवरा देवगढ़ लिखा है।
(बि० उ० रि० सो० ज०, दिसंबर १६१६)