मंदिर ही तो हमारी प्यारी अयोध्या के सूखे हाड़ हैं! पर हाँ रामचंद्र की विश्वव्यापिनी कीर्ति जिस समय हमारे कानों में पड़ती है, उसी समय हमारा मरा हुआ मन जाग उठता है! हमारे इतिहास को हमारे दर्दैव ने नष्ट कर दिया। यदि हम बड़ा भारी परिश्रम करके अपने पूर्वजनों का सुयश एकत्र किया चाहें तो बड़ी मुद्दत में थोड़ी सी कार्यसिद्धि होगी। पर भगवान् रामचन्द्र का अविकल चरित्र आज भी हमारे पास है जो औरों के चरित्र ( जो बचे बचाए मिलते हैं वा कदाचित् दैवयोग से मिले ) से सर्वोपरि श्रेष्ठ, महारसपूर्ण, परम सुहावन है! इसके द्वारा हम जान सकते हैं कि कभी हम भी कुछ थे, अथच यदि कुछ हुआ चाहें तो हो सकते हैं! हममें कुछ भी लक्षण हो तो हमारे राम हमें अपना लेंगे। वानरों तक को तो उन्होंने अपना मित्र बना लिया,हम मनुष्य को क्या वे भृत्य भी न बनावेंगे? यदि हम अपने को सुधारा चाहें तो अकेली रामायण से सब प्रकार के सुधार का मार्ग पा सकते हैं। हमारे कविवर वाल्मीकि ने रामचरित्र में कोई उत्तम बात न छोड़ी एवं भाषा भी इतनी सरल रखी है कि थोड़ी सी संस्कृत जाननेवाले भी उसे समझ सकते हैं। यदि इतना श्रम भी न हो सके तो भगवान तुलसी- दास की मनोहारिणी कविता थोड़ी सी हिन्दी जाननेवाले भी समझ सकते हैं; सुधा के समान काव्यानंद पा सकते हैं और अपना तथा देश का सर्वप्रकार हितसाधन कर सकते हैं।
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