का मुँह देखने लगी। कभी पटने के प्रतापशाली राजाओं ने इसे अपनाया और कभी कन्नौजवालों ने निज राजधानी की सेवा में इसे नियुक्त किया! अपने लोग चाहे कितने ही बुरे क्यों न हों, अंत को अपने अपने ही हैं। अपना यदि मारे भी तो भी छाया में रखता है । बौद्धों और जैनियों के समय के पहले की सी बात न थी तो भी अयोध्या की इस समय दशा मुसलमानों के राज्य से लाख गुनी अच्छी थी, क्योंकि दूसरों की राजधानी होने की अपेक्षा अपनों की दासी होना भी भला था; परंतु विधाता को इतने पर भी संतोष नहीं हुआ। इसके लिये उसने और भी भयंकर समय उपस्थित कर दिया। प्रथम तो रघुवंशियं के विरह से यह आप ही मर रही थी, दूसरे परस्पर की फूट ने इसे और भी हताश कर दिया था। वे घाव अभी तक सूखने भी न पाए थे, जो रामवियोग से इसके अर्चनीय और वंदनीय शरीर में होने लगे थे कि अकस्मात् महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार ने इस पर चढ़ाई कर 'जले पर नून' का सा असर किया। इसी सालार ने काशी के वृद्ध महाराज 'बनार' को धोखे से नष्ट कर काशी का स्वाधीन सुख अपहरण किया और इसी ने अयोध्या को चौपट किया। कई लड़ाइयों के बाद सन् १०३३ में यह सालार हिंदुओं के हाथ बहरायच में मारा गया। गाजीमियाँ के नाम से आज कल यही सालार मूर्ख और पशुप्राय जीवित हिंदुओं से पूजा करवा रहा है-
"किमाश्चर्य्यमतः परम"
फा० ४