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धृति और क्षमा

विचार में परिणत हो जाते हैं और इनकी पृथक् सत्ता का लेश तक नहीं रहता।

चाहे धैर्य और संतोष को कोई दार्शनिक एक ही अर्थ के अभिव्यंजक समझ उनका फल भी एक बतलावे, पर हमें तो इस स्थान पर धृति शब्द का अर्थ धैर्य ही मनोहर और युक्तियुक्त लगता है, संतोष नहीं। इसका कारण यह न समझना चाहिए कि आजकल के देशहितैषियों के समान हम सतोष को पुरुषार्थ का परम शत्रु और भारत के सत्यानाश का मूल समझते हैं, वरंच हमारी समझ में सतोष एक बहुमूल्य वस्तु है। वह धर्म की पहली सीढ़ी नहीं ठहर सकता क्योंकि जब मनुष्य धर्ममंदिर पर कुछ ऊँचे चढ़ने का कष्ट उठा ले, तब कहीं संतोष महाराज के दर्शन होते हैं, सो भी सहज में नहीं ।

वे लोग भूलते हैं जो संतोष को अवनति का मूल ठहराते हैं । सतोष अवनति का मूल नहीं, वरंच परमोन्नति का कारण है। यह सतोपी ही की सामर्थ्य है कि जीव को ब्रह्म पद तक पहुँचा देता है। संतोष वह शक्ति है जिससे ईश्वरीय शक्ति पर अपना अधिकार हो जाय । संतोषी पुरुष के दो हाथ और दो पैर रुके तो रुक सकते हैं पर उसके लिये सहस्रबाहु और सहस्रपाद चलने लगते हैं। कायर, अलस और कर्महीन को यदि कोई संतोषो समझ बैठे तो बड़ी भूल है संतोषी वह है कि जिसके पास रत्ती भर स्वार्थ न हो और परार्थ वा परमार्थ की गहरी पूँजी साथ हो।