सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
निबऺध-रत्नावली

इस समय-बब कि-

"हे है वही जो राम रचि राखा । को करि तक बढ़ावै शाखा" ||

अथवा-

"अजगर करै नचाकरी पंछी करै न काम ।
दास मलूका यों कहे सब के दाताराम ॥"

इत्यादि वाक्यों की झड़ी लगाकर लोग संतोष की महिमा दिखा रहे हैं, तब देखना चाहिए इनमें सच्चे , संतोषी कितने हैं। परीक्षा करने पर सिद्ध होगा कि सच्चे सन्तोष का कहीं नाम नहीं केवल प्रतारणा है। पहले महात्माओं का सन्तोष स्वार्थ में था और अब के इन महापुरुषों का परमार्थ में है। उस समय के संतोषी भीष्म, प्रहाद, रतिदेव आदि महापुरुष थे, जिनके सत्कर्म का हम पर बड़ा भारी ऋण है, और इस समय के संतोषियों में हम हैं जो रात-दिन स्वार्थ की झोली भर रहे हैं और परोपकार वा परमार्थ के समय संतोष की शरण पकड़ लेते हैं, जिससे कुछ करना न पड़े।

जबानी जमा खर्च कोई चाहे जितना करे पर इसमें संदेह नहीं कि अब यहाँ संतोष की केवल कथा शेष रह गई। संतोष के साथ परमार्थ भी बिदा हुआ। अब यहाँ इस बात के समझनेवाले कहाँ कि-

"सर्वाः संपत्तयस्तस्य संतुष्टं यस्य मानसम् ।”

ध्रुव प्रहाद के समान ईश्वर के सच्चे विश्वासी और विहित कर्म के करने वाले ही इस तत्व को समझ सकते हैं कि-