"संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं शांतचेतसाम् ।
कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥"
अर्थात् जो सुख संतोषामृत से तृप्त शान्तचित्त पुरुषों को है वह इधर-उधर भटकनेवाले धन के लोभियों को कहाँ ?
इसलिये हमने कहा है कि संतोष धार्मिक की परिपक्व दशा में हो सकता है, आरम्भ में नहीं, क्योंकि वह धर्माचरण का फल है और इसलिये यह कहना भी कोई अनुचित नहीं कि इसके अधिकारी विरले ही जिज्ञासु पुरुष हो सकते हैं. सच नहीं हो सकते । सुतर्ग, पस्तुत विषय में धृति का अर्थ धैर्य हो ठीक ठहरता है, क्योंकि इस समान धर्म का सोपान भी धर्माचार्यो की अधिकार-प्रणाली के कौशल से खाली नहीं है।
धृति वा धैर्य उस धारणा का नाम है जो मनुष्य को अपने विचार पर दृढ़ बनाये रखे । अपनी बात से कदाचित् भी हटने न दे । चाहे कोई निंदा करे वा स्तुति, चाहे लक्ष्मी की प्राप्ति हो वा विनाश, चाहे प्राण सदैव बने रहें वा आज ही निकल जायें इसकी कुछ चिंता नहीं, पर धीर पुरुष अपनी बात से नहीं हटता । वह अपने स्वीकृत न्याय्य मार्ग का परित्याग नहीं करता । राजर्षि भर्तृहरि के सिद्धांत के समान उसका विचार भी सदैव दृढ़ रहता है
"नीति-निपुण नर धीर बीर कछु सुजस कहो किन ।
अथवा निंदा कोटि करौ दुर्जन छिन ही छिन ।।