सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७६ )

विचारे छुटभश्ये लाइसेन्स और चुगी के डर से, पहिले तो कुछ करी नहीं सकते, यदि कुछ करें तो तीन खाते है तेरह की भूय यनी रहती है।

हमारा कानपुर जो अब से दस वर्ष पहिले था, अब नहीं रहा । यह नो रोज सुन लीजिए कि बाज फलाने बिगड़ गये, गर यह सुनने को हम मुद्दत से तरसते है कि इस साल फलाने इस काम में वन वैठे । जय नामदनी के इन उत्तम और मध्यम मार्गों की यह दशा है तो सेवा वृत्तियों का कहना ही क्या, सैकड़ों पढे लिखे मारे २ फिरते है, बिना सिफारिश कोई सेंत नहीं पूछता । कुछ मिडिल क्लास की पस, कुछ येकदरी के बायस से विचारे चावू लोग महगी कैसे मजदूर उतराते फिरते हैं । कहार ढूढो तो मुश्किल से मिलें, नाच वाच के लिए धेश्या बडे नखरे से आवे, पर हमारे 'इन्लाइटेन्ड' भाई से झूठ मूठ भी कहि देव कि फलानी जगद एक हेड की जरूरत है, बस, एक के बदले पचास, चुगा फलकारते, मुरैठा सम्हा लते मौजूद हैं । अगले लोग जिस नौकरी को निकृष्ट-वृति और शूद्र का काम समझते थे उसकी लालसा यडे २ वाजपेयी ऐसी रखते हैं जैसी मतवाले भाई मुक्ति की न रखते होंगे। वह नौकरी जिनको महादेवजी फी दया से मिल भी गई है, उन्हें ययुआई की उसफ मारे डालती है । सुनते हैं. आगे चार पया महीने का नौकर अपने कुटुम्ब के सिवा दो चार और आश्रितों का भरण-पोषण कर लेता था, पर हमको इस का निश्चय क्यों फर हो, जय देखते हैं कि सौ२ दो दोसी के नौकर भी, राम झूठ न बुलायै, सो पीछे पचहत्तर तो अवश्य ऐसे होंगे जिनको हज़रत गालिय का यह पाश्य अनुभूत सिसान्त है:-