पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१११

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जहाँ व्याख्यान होते थे यह स्थान ऐसा सुदृश्य और नाना वस्तु तथा एक रन रूप की कुर्सियों से सुसजित था कि देखते ही बनता था। विशेषत. महात्मा राम इत्यादि पुरुष- रत्नों के आने पर तथा किसी के उत्तम व्याख्यान में कोई चीज की बात आ जाने पर करतल ध्वनि ओर आनन्द ध्वनि के एव नाना रग रूमाल-नर्तन को शोभा देखके यही हात होता था कि हम सुरराज के मदिर में देव-समूह के मध्य मंठे हुए पानन्द समुद्र की लहरें ले रहे हैं । २६ से २६ ता० तक फाग्रेस का महाधिवेशन रहा । इस अवसर में प्रति- दिन प्रतिछिन आनन्द को वृद्धि रही। पर वह आनन्द केवल भारत-भको के भाग्य में था। इतर लोग तो जो वहा जा मी पहुचे तो कोरे के कोरे ही श्राए ।

एक दिन एक मियां साहब किसी से टिकट मांगके हमारी प्रेम-छावनी के भीतर पहुंच भी गए, पर इधर उधर अपनी अटीयाजी फैलाने से बाज न आए । अत दूध को मक्सी की भाति दूर कर दिए गए । २५ ता० को हमारे राजा शिव- मसाद साहब भी प्रयागजी में आए, और टेलीगेट होने का दावा किया, परच फीस भी जमा कर दी, एय अपने पूर्व- हत्यों का अनुताप भी प्रकाशित किया। पर किप्ती को विश्वास ने हुना । विश्वास तो सव होता जर आप कभी किसी देश- हित के काम में शरीक हुए होते। लोग नाना प्रकार के नर्फ- वितर्फ करने लगे। किसी ने कहा-राज पनि गति जानिन जाई', फिसी ने कहा चतुर तो हुई ६ फौनजाने-'चौथेपन नृप कानन जाई' का उदाहरण दिखावें। किसी ने कहा, अभी यही तो कांग्रेसवालों को दडनीय ठहराते थे, एकबारगी वोकर