पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२७ )

शक्षा क्षत्रियत्व का देप नहीं पड़तापिर हमारे टाकुर साहय के नामों में, चेहरे मोहरे में एफै प्रकार की वीरता आज भी भकती है। इससे हम क्या एक विदेशी मी कहें देगी कि यद बहादुर कौम है। पर बिनार के देखो तो स्वजातिहिता न्क्षेपण के मैदान में जितना मुंशीजी को और खेत्री साहय का कर्दम भौगे यदी हुआ है उतने ही राजपून महाशय पीछे पड़े हैं। इसमें जांतिहितैपियों की संख्या कदाचित् उंगुलि. यो पर गिनी जाय । इसीसे इनके देखें चे समुपत हैं।

धेरण में हमारे ओमर दोसर जो ईम' कान्यकुब्जी ही की जिंहा से नहीं, घरेच जगत् के मय से येनिया ही के नाम से लपित हैं, ये फूटे का मूलारोपण और फलावादन में हमारे मुरूप शिष्य है । पर अग्रवाल महोदय जो समय के फैरफार तथा पश्चिमीय जल वायु के सरकार से कुछ २ मिया भाइयों की लटक पर आँ गये हैं, वे अपने चार भाइयों की दया सम्पादन करके ऐक्य के मधुर फल को पूर्ण रीति से नहीं ता भी कुछ नो पा ही रहे हैं । मारवाडी भाई यद्यपि विधा से यचित और दोनों प्रकार के धेश्यों से अलग है, पर एका मैं ऐसी है कि ओमरे दोसर और अगरवाले महेसरी तो क्या, हम मनाते हैं, परमेश्वर हमारे ठोकर साहय और और में भी सिखाये (धन्य है, देश से आते देर नहीं और सेठ जी बन जाते देर नहीं। चाहे नित्य' दिवाली निकले, पर "अपणा मायांगे कीडी ने रस्त्रांगा । इमेतो इस घुद्धि को देवताओं ही की बुद्धि काहेंगे।

शूद, जो सय की दृष्टि में नीचे है, पर पाच पच फा र सहायता, स्नेह को पूर्ण सुख मांगते हैं। इसीसे कहते हैं कि “ऊव निवास नीच करतूती, हिते लगी घडेन में कृती" !