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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१४८

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ऊंच निवास नीच करतूती।

बगाली ब्राह्मण अपने को कान्यकुब्जों का वश बताते हैं। इससे स्वय सिद्ध है कि जो लोग आज भी कान्यकुब्ज देश ही के इधर उधर रहते हैं, और फान्यकुब्ज ही कहलाते है वे अधिक श्रेष्ठ हैं। क्योंकि देश, मेप, मापा, भाचार, व्यवहार सभी कुछ बना है । भला यह श्रेष्ठ न होतो तो क्या वे होंगे जिनका नाम भी और हो गया। पर जय हम देखते है कि बगाली माशा (महाशय ) पक शूद्र, निर्धन, अविद्य और उदासीन (न मित्र न. शत्रु) वगाली, 'के हितार्थ पतद्देशीय अत्युच बामण पड़े, भारी,अमीर, महापड़ित एवं परम मित्र को कुछ माल नहीं गिनते, घरसों की मित्रता छोड़ नए परि- चयी की भोर हो जाते हैं, यहा तक,कि 'हिन्दुस्तानी' शब्द ही को वे अन्त फररा से तुच्छ, समझते हैं। पर हमारे रोरे जी (फनौजिया भाई) की अकित पर ऐसे पाथर पड़े हैं कि दुनिया भर की चाहै लातें साय प्रात्रे, पर अपने को अपना समझे तो शायद पाप हो । रुनौजियाय में बट्टा लग जाय । धाकर तो धाफर ही है। अच्छे झकझौधा पटदुख का भी पक्ष करना नही सीखे यही कारण है कि विद्या में, बुद्धि में, माजद्वार में, प्रतिष्ठा में यगाली भद्रो पुरुप है, (यदि आज न हो नो कुछ दिन में अवश्य याबू लोग बनाय लेग) और यह कुलीन दादा कुली नहीं तो मजदूर अवश्य ही हैं।

घर क्षत्रियों में देखिए तो हम यह नहीं कह सकते कि खत्री और फायस्थ क्षत्री नहीं हैं, पर डीन डौल, नाम काम, पहिरावे उदावे में मजाक्त मा जाने से और यशोपवीत तथा सामयिक राज भाषा यो अभ्यास के अतिरिक और कोई