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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/५०

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'ना हम काहू के कोऊ ना हमारा' का उदाहरण बन के सब प्रकार के सुख-सुविधा, सुयश से वचित रह जावें। इतना ही नहीं, वरंच और मो सोच कर देखिए तो किसी को कुछ भी खबर नहीं है कि मरने के पीछे जीव की क्या दशा होगी?

बहुतेरों का सिद्धान्त यह भी है कि दशा किसकी होगी, जीव तो कोई पदार्थ ही नहीं है। घडी के जब तक सब पुरजे दुरुस्त हैं, और ठीक ठीक लगे हुए हैं तभीतक उसमें खट सट, टन टन आवाज मा रही है, जहा उसके पुरजों का लगाय विगडा वहीं न उसकी गति है, न शब्द है। ऐसे ही शरीर का फ्रम जब तक ठीक २ बना हुवा है, मुस से शब्द और मन से भाव तथा इद्रियों से कर्म का प्राकट्य होता रहता है, जहा इसके क्रम में व्यतिक्रम हुआ वही सब खेल बिगड गया, फिर कुछ नहीं, कैसा जीव ? कैसी प्रात्मा? एक रीति से यह कहना झूठ भी नहीं जान पडता, क्योंकि जिसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है उसके विषय में अंततोगत्वा योही कहा जा सकता है। इसी प्रकार स्वर्ग नर्कादि के सुरा दुःखादि का होना भी नास्तिको ही के मत से नहीं, किन्तु बडे बडे आस्तिको के सिद्धान्त से भी 'अविदित सुख दु.ख निर्विशेष स्वरूप' के अतिरिक्त कुछ समझ में नहीं आता। स्कूल में हमने भी सारा भूगोल और खगोल पढ डाला है, पर नर्क और वैकुठ का पता कही नहीं पाया। किन्तु भय और लालच को छोड़ दें तो बुरे कामों से घृणा और सत्कर्मा से रुचि न रख कर भी तो अपना अथच पराया अनिष्ट ही करेंगे। ऐसी२चातें सोचने से गोस्वामी तुलसीदासजी का 'गो गोचर जहँ लगि मन जाई, सो सघ माया जानेहु भाई'