भी अच्छा अभ्यास कर लिया था । आपने फारसी और सस्कृत में भी कुछ कविता लिखी है । इमसे जान पडता है कि इन भाषाओं में भी आपको गति थी । वगला भी इन्होंने सीख लिया था।
जिस जमाने में प्रतापनारायण स्कृत में थे, बाबू हरिश्चन्द्र का “कविकंकंवचनसुधा" पत्र सब उन्नत अवस्था में था । उसमें यदुत ही मनोरजक गद्य पद्य मय लेस निकलते थे । उसे, और वायू हरिश्चन्द्र की अन्यान्य रचनात्रों को भी, पढ़कर प्रतापनारायण की प्रवृत्ति कविता की तरफ हुई । उस समय कानपुर में लावनीवानों का बडा जोर शोर था। बावू सीता- राम कहते हैं कि लावनी गानेवालों की कई जमातें यहां थीं। लावनी का प्रसिद्ध कवि बनारसी भी उस समय अकसर कानपुर में रहा करता था। वे लोग अफसर सर्वसाधारण में लावनी गाया करते थे। उनके दो दल इकट्ठे हो जाते थे और लावनीव कहने में एक दूसरे को परास्त करने की चेष्टा करते थे। उनमें से कोई काई आदमी रहुन अच्छो लावनी कहने थे और मौके मौके पर नई लावनी वना भी लेते थे । प्रतापनारा- यण इन लोगों को जमानों में कभी भी जाते थे। इसी समय फानपुर के प्रसिद्ध कवि पण्डित लग्निताप्रसाद त्रिवेदी के धनुप-यक्ष का घृम थी । आर राम लीला-विशेष करके धनुप यश-कराने में बडे निपुण थे। समयानुकूल अच्छी अच्छी कविता की रचना करके और उमे लीलागत पात्रों के से मुनाफर सुननेवालों के मन को श्राप माहित कर लेते थे। प्रतापनारायण भी इस लीला में शामिल होते थ और "ललित"