पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३ )

और श्री सूरदास जी का 'माया मोहनी मनहरन' कहना प्रत्य. क्षतया सच्चा जान पडता है। फिर हम नहीं जानते कि धोखे को लोग क्यों बुरा समझते हैं ? धोखा खानेवाला मूर्ख और धोखा देनेवाला उग क्यों कहलाता है'? जब सब कुछ धोखा ही धोखा है, और धोखे से अलग रहना ईश्वर की भी सामर्थ्य से दूर है, तथा धोखे ही के कारण ससार का चार्खा पिन्न २ चला जाता है, नहीं तो ढिश्चर २ होने लगे, वरच रही न जाय तो फिर इस शब्द का स्मरण वा श्रवण करते ही आपकी नाक-भौंह क्यों मुकुड जाती हैं ? इसके उत्तर में हम तो यही कहेंगे कि साधारणत जो धोखा खाता है यह अपना कुछ न कुछ गवा बैठता है, और जो धोखा देता है उसकी एक न एक दिन कलई खुले बिना नहीं रहती है, और हानि सहना वा प्रतिष्ठा खोना दोनों बातें बुरी हैं, जो बहुधा इसके सम्बन्ध में हो ही जाया करती हैं।

इसीसे साधारण श्रेणी के लोग धोखे को अच्छा नहीं सम- झते, यद्यपि उससे बच नहीं सकते, क्योंकि जैसे काजल की कोठरी में रहनेवाला येदाग नहीं रह सकता वैसे ही भ्रमात्मक भवसागर में रहनेवाले अल्प सामर्थी जीव का भ्रम से सर्वथा बचा रहना असम्भव है, और जो जिससे बच नहीं सकता उसका उसकी निंदा करना नीति विरुद्ध है। पर क्या कीजिये, कची खोपडी के मनुष्य को प्रानीन प्राशगण अल्पज्ञ कह गये है, जिसका लक्षण ही है कि आगा पीछा सोचे विना जो , मुह पर आये कह डालना और जो जी में समावे कर उठना, नहीं तो कोई काम वा वस्तु वास्तव में भली अथवा वुरी नहीं होती, केवल उसके व्यहवार का नियम बनने बिगडने से बनाव बिगाड हो जाया करता है।