पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/६२

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भौं।

निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारो ओर कुत्ते तथा जुवारी भौं भी भौंकते फिरते हैं, सम्पादकी की सनक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो यही "भौं अर्थात भूकने के शब्द को लिन मारा ! पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने चाचकवृन्द को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं । महाशय!दर्पण हाथ में लेके देखिये, आसों की पलको के ऊपर श्याम-वर्ण-विशिष्ट कुछ सोम है। बरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपरवाले रोम- समूह । जिनको अपनी हिन्दी में हम भी, भौंह, भौह कहते हैं, संस्कृत के पडित भू बोलते हैं। फारसयाले अबरू और अंगरेज़ लोग 'भाईब्रो' कहते हैं, उन्हीका वर्णन हमें करना है।

यह न कहिएगा कि थोडे से रोए हैं, उनका वर्णन ही क्या? महीं। यह थोहे से रोएँ बहुत से सुवर्ण के तारों से अधिक हैं। हम गृहस्थ हैं, परमेश्वर न करे, फिसी बडे बूढे की मृत्यु पर शिर के, दाढ़ी के और सर्वोपरि मूछौं तक के भी बात बनवा डालेंगे, प्रयाग जी जायँगे तो भी सर्वथा मुंडन होगा, किसी नाटक के अभिनय में स्त्री भेष धारण करेंगे तौभी घुटा गे, ससार-विरत होफे सन्यास लेंगे तो भी भद्र कराना पडे गा. पर चाहे जग परलौ हो जाय, चाहे लाख तीर्थ घूम भाई, चाहे दुनियाभर के काम बिगड़ जाय, चाहे जीवनमुक ही का पद क्यों न मिल जाय, पर यह हमसे कभी न होगा कि एक छरा भौहों पर फिरवा लें । सौ हानि, सहन शोक, लक्ष भान- डालें 1