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पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/६३

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तिष्ठा हो तो भी हम अपना मुह सब को दिखा सकते हैं, पर यदि किसी कारण से भोहैं सफाचट्ट हो गई तो परदेनशीनी ही स्वीकार करनी पडेगी। यह क्यों ? यह यों कि शरीरभरे की शोभा मुख-मडल है, और उसकी शोभा यह हैं। उस परम कारीगर ने इन्हें भी किस चतुरता से मनाया है कि बस, कुछ न पूछो। देखते ही बनता है । कविवर मर्ह हरिजी ने- "धूचातुर्य कुंचिताक्षा, फटापा, जिग्धा, वाचो सजिताचैधहास, सीता मद प्रस्थित च स्त्रीणां मेतद्भपण चायुधच" लिखकर पया ही सची यात दिखलाई है कि पस, अनुभष ही से काम रखती है। काहे कोई तो क्या कहे, निस्सदेत, स्त्रियों के लिए भूपण है, क्योंकि उनकी परम शोमा है, और रसिकों को घशीभूत फरने के हेतु सुन्दरियो का शख है। यह बात सहदयता से सोचो तो चित्त में भगणित भाव उत्पन्न होंगे, देखो तो भी भनेक स्वादु मिलेंगे। पर जो कोई पूछे कि यह क्या है तो भूचातुर्य अर्थात भौंहों में भरी हुई चतुरता से अधिक कुछ नाम नहीं ले सकते। यदि कोई उस भू-चातुर्य का लक्षण पूछे तो बस, चुप । हाय २ फवियों ने तो भौंह की सरतमात्र देखके कही दिया है, पर रसिकों के जी से कोई पूछे । प्रेमपात्र की मौह का सनक हिल जाना मनके ऊपर सचमुच तलवार ही का काम कर जाता है। फिर भृकुटी- रूपाण क्यो न कहें। सीधी वितवन वान ही सी कलेजे में सुम जाती है। पर इसी भू-चाप की सहाय से श्री जयदेव. सामी का यह पवित्र पचन-

'शशि'मुखि सप भाति भगुरचू
युधजन मोह कराल कालसी,